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नीति वाक्यामृतम्
बरसता है ? 1123॥ (सः) वह (स्वामी) राजा (किं) क्या (यः) जो (आश्रितेषु) अपने आधीन के ( व्यसने ) विपत्तिकाल में (न) नहीं (प्रविधत्ते) रक्षा करे ? 1124 ॥
विशेष :- उन मेघों से क्या प्रयोजन जो समय पर जलवर्षण नहीं करते हैं ? कोई कार्य सिद्धि नहीं होता । उसी प्रकार जो पुरुष या राजा समय पर अपने सेवकों का रक्षण नहीं करता उससे क्या लाभ ? कुछ भी नहीं । वह स्वामी व्यर्थ है 1123 ॥
वह स्वामी किस काम का ? जो अपने आश्रितों का विपत्तिकाल में रक्षण नहीं करे । संकटकाल में सेवकों की सहायता नहीं करना निंद्यनीय है | अभिप्राय यह है कि दुःख में सहायक होना स्वामी का कर्त्तव्य है 1123 ॥
जो राजा गुण-दोषों का विचार नहीं करता । अर्थात् कौन व्यक्ति विश्वास करने योग्य है, कौन नहीं है ऐसा विचार नहीं कर सकता । काँच और मणि में भेद नहीं समझता । अर्थात् सज्जन व दुर्जन के साथ समान व्यवहार करता है, उसके लिए कौन सेवक अपने प्राण न्यौछावर करेगा ? कौन युद्धभूमि में अपने बलि देगा ? कोई नहीं? आंगिर विद्वान ने भी यही कहा है :
काचोमणिर्मणिः काचो यस्य सम्भावनेद्दशी । कस्तस्य भूपतेरग्रे संग्रामे निधनं व्रजेत् ॥
अर्थ :जो कौंच को मणि और मणि को काच समझता है उस राजा के समक्ष संग्राम में मरने को कौन तैयार होगा ? अर्थात् कोई नहीं ।।1 ॥24 ॥
॥ इति बल समुद्देशः 1122 ॥
इति श्री चारित्र चक्रवर्ती परमपूज्य मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् आचार्य परमेष्ठी विश्ववन्द्य, अघोर तपस्वी, वनगुहा निवासी श्री 108 आचार्य आदिसागर जी महाराज (अंकलीकर) के पट्टाधीश तीर्थभक्त शिरोमणि समाधिसम्राट् परम् पूज्य श्री आचार्य महावीर कीर्ति जी संघस्था एवं परम पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, निमित्त ज्ञान शिरोमणि श्री 108 आचार्य विमल सागर जी की शिष्या प्रथम गणिनी, ज्ञान चिन्तामणि 105 आर्यिका विजयामती ने यह हिन्दी विजयोदय टीका का 22वां वल समुद्देश श्री परम पूज्य उग्रतपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के पावन चरणों में पूर्ण किया ।।
ॐ शान्ति ॐ
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