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नीति वाक्यामृतम्
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रिश्वत जीविका संचालक अपने उन्नतिशील स्वामी का भी घात कर डालते हैं । अर्थात् बेच देते हैं ।। इसका अभिप्राय यह है कि घूसखोर जिस प्रयोजनार्थी से रिश्वत लेते हैं उसकी असत्य बात को भी सत्य साबित करते हैं, अन्याय को भी न्याय घोषित करते हैं । इससे राजा की आर्थिक क्षति होती है यही स्वामी की विक्री हुई ।। भृगु विद्वान ने भी इसी अभिप्राय को प्रकट किया है :
लञ्चेन कर्मणा यत्र कार्यं कुर्वन्ति भूपतेः ।
विक्रीतमपि चात्मानं नो जानाति समढ़ धीः ।। मूर्ख-मूढ़ बुद्धि रिश्वतखोरों द्वारा स्वयं की बिक्री को भी नहीं समझ पाता ।। अतः राजा को इन कार्यों से सावधान रहना चाहिए 139॥ बलात् धन लेने से राजा, प्रजा की हानि, अन्याय का दृष्टान्त :
प्रासाद ध्वंशनेन लौहकीलकलाभ इव लञ्चेन राज्ञोऽर्थ लाभः 10॥ (प्रासादः)-महल (ध्वंशनेन) फोड़ तोड़कर (लौहकीलक:) लोहे की कीलें (लाभ) प्राप्ति (इव) के समान (लञ्चेन) घूसखोरी से (राज्ञः) राजा का (अर्थः) धन (लाभ:) लाभ है ।
विशेषार्थ :- जो प्रजापाल प्रजा से बलात्कार रिश्वत आदि द्वारा धनार्जन की अवैध चेष्टा करता है वह नवीन महल को फोड़ कर लोहे की कीलें समन्वित करने के समान कार्य है । अर्थात् जिस प्रकार साधारण लाभ कीलों को पाने की इच्छा से बहुमूल्य, सुन्दर, अतिश्रम से निर्मित राजप्रासाद को धराशायी कर कीलें प्राप्त करे उसी प्रकार क्षुद्र स्वार्थ के लिए लूट-मार, असत्यारोपादि द्वारा प्रजा से धन-लूटना हानिकारक है, शत्रुओं के निर्माण का सफल प्रयोग है और खजाने को खाली करने का उपाय है । क्योंकि इस घोर अन्याय से प्रजा पीड़ित होगी, संत्रस्त होकर बगावत करेगी, फलतः राजक्षति भी होगी। अभिप्राय यह है कि राज-बहुमूल्य प्रासाद के सदृश है और लुञ्च (लूट-मार) कीलों के समान है । इस प्रकार का कार्य राजा की मूढ़ता का परिचायक है । इससे वह हंसी का पात्र होगा । क्योंकि इस प्रकार कार्य स्वयं अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है 1401। गर्ग ने भी कहा है :
लञ्च द्वारेण यो लाभोभूमिपानां स कीदशः । लोहकीलकलाभस्तु यथा प्रासाद ध्वंसने 11॥
उपर्युक्त ही अर्थ है ।। राज्ञो लञ्चेन कार्यकरणे कस्य नाम कल्याणम् 141॥ अन्वयार्थ :- (राज्ञः) राजा का (लञ्चेन) यूंस द्वारा (कार्यकरणे) कामकरने से (कस्य नाम) किसका (कल्याणम्) हित होने वाला है ? किसी का नहीं ।।1।।
विशेष:- जो राजा बलपर्वक अपनी प्रजा से बलात्कार धनादि अपहरण करता है । उसके राज्य में किसका कल्याण हो सकता है ? किसी का भी नहीं 141॥ विद्वान भागुरि ने भी कहा है :
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