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नीति वाक्यामृतम्
अन्यायेन प्रवृत्तस्य न चिरं सन्ति सम्पदाः ।
अपि शौर्य समेतस्य प्रभूत विभवस्य च ।।1॥ स्वेच्छाचारी-मनमाना कार्य करने वाला पुरुष अपने ही परिवार वालों से अथवा अन्य लोगों के द्वारा मार दिया जाता है ।।20॥ अत्रिविद्वान ने भी कहा है :
स्वेच्छया वर्तते यस्तु न वृद्धान् परिपृच्छति ।
सपरै हन्यते नूनमात्मीया निरङ्कुशः ॥1॥ __ अर्थ :- जानवृद्धो के परामर्श बिना जो व्यक्ति स्वेच्छा से निरंकुश कार्य प्रवृत्ति करते हैं, उन स्वेच्छाचारियों को कुटुम्बियों द्वारा अथवा अन्य लोगों द्वारा मृत्यु प्राप्त होती है 100
स . ऐश्वर्य की सेन्य-कोष-शक्ति, प्रजा व मन्त्री, पुरोहितों द्वारा आज्ञा पालन से ही सफलता होती है 1211 वल्लभदेव विद्वान ने भी कहा है:
स एव प्रोच्यते राजा यस्याज्ञा सर्वतः स्थिता ।
अभिषेको वणस्यापि व्यजनं पट्टमेव च ।।1।। अर्थ :- जिसकी आज्ञा सर्वमान्य हो वही राजा कहलाता है । यदि उसकी आज्ञा नहीं चले तो वह व्यक्ति केवल अभिषेक, व्यजन (चमरादि) व व्यजन-पंखा से हवा किया जाना और पट्टनबन्ध आदि चिन्हों से युक्त मात्र राजा नहीं हो सकता क्योंकि जल से धोना-अभिषेक व पट्टी बांधना रुप कार्य तो फोड़े का भी होता है । क्योंकि फोड़े की सफाई को जल से धोना, मलहम लगाकर पट्ट बांधना, और मक्खियाँ उड़ाने को पंखा झलता ही है । अत: राजा की गरिमा उसकी आज्ञा का होना ही है । 21 ||
राजकीय आज्ञा समस्त प्रजा द्वारा अलंध्य होती है । जिस प्रकार विशाल परकोटा उल्लंघन नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार राजा की आजा भी सर्वमान्य होती है किसी के भी द्वारा उसका प्रतीकार नहीं किया जात है 1122 ॥ गुरु विद्वान ने भी कहा है :
अलंघ्यो यो भवेद्राजा प्राकार इव मानवैः ।
यमादेशमसौ दद्यात् कार्य एव हि स ध्रुवम् ।।1॥ राजकर्तव्य, आज्ञाहीन राजा की आलोचना, सजा के योग्य पुरुष :
आज्ञाभंगकारिणं पुत्रमपि न सहेत ॥23॥ कस्तस्य चित्रगतस्य च विशेषो यस्याज्ञा नास्ति ॥24॥ राजाज्ञावरुद्धस्य तदाज्ञां न भजेत् ।।25।। परमर्माकार्यमश्रद्धेयं च न भाषेत 126॥
अन्वयार्थ :- (आज्ञाभंगकारिणम्) राजाज्ञा नहीं मानने वाले (पुत्रम्) पुत्र को (अपि) भी (न सहेत) सहन नहीं करे 123 ।। (तस्य) उस (चित्रगतस्य) चित्र में बने राजा की (च) और (यस्य) जिसकी (आज्ञा) आदेश
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