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________________ भीति वाक्यामृतम् ५ के जल से (किम्) क्या प्रयोजन ? (यत्र) जहाँ (सताम्) सत्पुरुषों को (अनुपभोगः) उपयोग या उपभोग में न आवे In8॥ विशेषार्थ :- कजूस का धन-वैभव और चाण्डालों का सरोवर दोनों ही निष्प्रयोजन हैं क्योंकि इनके द्वारा सज्जनों का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । कृपण का वैभव कितना ही हो या चाण्डालों के सरोवर में कितना गहरा जल क्यों न भरा हो, उसका लवांश भी सत्पुरुषों से सेवित नहीं हो सकता । नारद विद्वान ने भी कहा किं किनानधनेनात्र किमन्त्यज तडागजम् । सलिलं यद्धि नो भोग्य साधूनां सम्प्रजायते ।।1 ॥ अर्थ :- सत्पुरुषों के उपभोग्य से रहित कृपण के प्रभूत धन और चाण्डाल के लबालब भरे तालाब से भी क्या लाभ ? कुछ लाभ नहीं है । जन साधारण एक दूसरे की देखा-देखी करते हैं ।। अन्वयार्ग :- (लोक:) मंदारी (गाविता:) देखा-देनी करने वाले (यतः) क्योंकि (सदुपदेशिनी) यथार्थ उपदेश देने वाली भी (अपि) भी (कुट्टिनीम्) वेश्या को (तथा) उस प्रकार (न) नहीं (प्रमाणयति) प्रमाणित किया जाता यथा (गोघ्नमपि) गाय की हत्या करने वाले भी (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण को 119 || विशेषार्थ :- सामान्यत: जन-साधारण लोग देखा-देखी क्रिया-काण्डादि को करते हैं । यदि कोई सत्पुरुष अपने शुभ प्रयोजन को लेकर किसी मार्ग से चल पड़ा । दूसरे दर्शक लोग भी बिना सोचे विचारे ही परीक्षा किए बिना उस पथ पर चल पड़ते हैं । उसका अनुकरण तो करते ही है तथा उसे प्रामाणिक भी मान लेते हैं । परन्तु यदि कोई वृद्ध अनुभवी सुन्दरी वेश्या यदि सुन्दर, शोभावान पुरुषों को धर्मोपदेश सुनाने लगे तो उसे कोई मान्यता नहीं देते । प्रामाणिक नहीं मानते । उसी स्थान में-उसी प्रकार यदि कोई हत्यारा मनुष्य ब्राह्मण है गाय का वध करने वाला भी है तो उसे मान्यता देते हैं 29॥ गौतम विद्वान ने भी कहा है : कुट्टनीधर्म युक्ताऽपि यदि स्यादुपदेशिनी । न च तां कोऽपिपृच्छेत जनो गोजं द्विजं यथा ॥1॥ अर्थ :- वेश्या धार्मिक होकर भी यदि धर्मोपदेश देती है तो उसे कोई मान्यता नहीं देता और गाय का हत्यारा ब्राह्मण यदि धर्मोपदेश दे तो उसे सर्वजन प्रमाणित स्वीकार करते हैं | किसी विद्वान ने कहा है गतानुगतिको लोको न लोक : पारमार्थिकः वालुकालिंग मात्रेण गतं में ताम्रभाजनम् ॥ अर्थ :- साधारण जन समूह वास्तविक कर्त्तव्य मार्ग पर नहीं चलते अपितु देखा-देखी कर बैठते हैं । बालुकारेत में लिङ्ग का चिन्ह बनाने से मेरा ताम्बे का बर्तन नष्ट हो गया | 339
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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