________________
नीति वाक्यामृतम्
"निरर्थकवाणी व वचनों की महत्ता :
सा वागुक्ताऽप्यनुक्तसमा, यत्र नास्ति सद्युक्तिः ।।16॥
वक्तु गुण गौरवाद्वचनगौरवम् ।।17 ।। अन्वयार्थ :- (यत्र) जहाँ (सत्) सम्यक् (युक्तिः) युक्ति (नास्ति) नहीं है (सा) वह (वाक्) वाणी (उक्ता) कही भी (अनुक्तसमा) नहीं कही के समान [अस्ति] है 116 ॥ (वक्तुः) वक्ता के (गौरवात्) प्रमाणित होने से (वचन गौरवम्) वचन में प्रमाणता (भवति) होती है 17॥
विशेषार्थ :- वक्ता यदि प्रशस्त युक्तियों का प्रयोग करते हुए पदार्थ का समर्थन नहीं करता है तो वे वचन शोभन अभिप्राय न होने से कथित होने पर भी नहीं कहे के समान समझे जाते हैं ।। हारीत विद्वान ने भी कहा
सा वाग्युक्ति परित्यक्ता कार्य स्वाल्पाधिकस्य वा ।
सा प्रोक्ताऽपि वृथा ज्ञेया स्वरण्यरुदितं यथा ।1।। ___ अर्थ :- वक्ता की वाणां यदि युक्ति शून्य है और श्रोताओं के अल्प अथवा अधिक प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकती है, उसे अरण्यरोदन के समान व्यर्थ समझना चाहिए । अर्थात् उसके बोलने का कोई प्रयोजन नहीं है 11116 ||
वक्ता के गुणों का वैशिष्टय-विद्वत्ता, नैतिक शुभ प्रवृत्ति एवं सदाचार में महत्ता होने से उसके कहे हुए वचनों में भी महत्ता, प्रामाणिकता व मान्यता प्राप्त होती है ।17 || रैम्य विद्वान ने भी कहा है :
यदि स्याद् गुणसंयुक्तो वक्ता वाक्यं च सद्गुणम् ।
मूर्यो वा हास्यतां याति सभामध्ये प्रजल्पितम् ॥1॥ अर्थ :- वक्ता यदि गुणज्ञ है तो उसकी वाणी भी गुण भरी गंभीर होती है । यदि वक्ता मूर्ख-अज्ञानी है तो वह सभा के मध्य निरर्थक प्रलापी होने से हंसी का पात्र होता है । अतएव गुण और वाणी का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । तभी तो कहा है "अन्तर की करणी सवै निकसत मुख की बाट" अर्थात् अन्तरङ्ग के गुण-दोषशुभ-अशुभ भाव मुख द्वार से वाणी के रूप में बाहर प्रकट होते हैं । अत: वक्ता को हृदय शुद्धि रखना अनिवार्य है 17॥ कपणधन की आलोचना और जन साधारण की प्रवृत्ति :
किं मितंपधेषु धनेन चाण्डालसरसि व जलेन यत्र सतामनुपभोगः Im8॥ लोको गतानुगतिको यतः सदुपदेशिनीमपि कुट्टिनीं तथा न प्रमाणयति यथा गोनमपि ब्राह्मणम् ।।19॥
अन्वयार्थ :- (मितंपचेषु) अधिक (धनेन) लक्ष्मी से (व) अथवा चाण्डाल के (सरसि जलेन) सरोवर
338