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________________ नीतिवाक्यामृतम् व्रत विद्यावयोधिकेषु नीचैराचरणं विनयः 116 ॥ पुण्यावाप्ति: शास्त्ररहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुषाधिगम्यत्वं च विनयफलम् ॥7 ॥ अन्वयार्थ :- (अस्वातन्त्र्यः) स्वच्छन्दता ( मुक्तकारित्वम्) रहितपना, गुरु आज्ञापालक (नियमः) इन्द्रिय विजयी (विनीतता) विनम्रव्यहार (च) और सदाचारादि ( गुरुपासनकारणानि ) गुरु उपासना - सेवा के कारण हैं । 15 ॥ ( व्रत विद्या वयः ) व्रत, विद्या व उम्र में (अधिकेषु) बड़ों के प्रति ( नीचैः) नम्रता का ( आचरणम्) व्यवहार (विनयः) विनय है .6 | ( पुण्यस्य) पुण्य की (अवाप्ति:) प्राप्ति (शास्त्ररहस्य परिज्ञानम् ) शास्त्र के गहन तत्वों का परिज्ञान (च) और ( सत्पुरुषाधिगम्यत्वम् ) महापुरुषों का समागम (विनयफलम् ) विनय का फल है । विशेष :- स्वच्छन्द नहीं रहना, गुरु की आज्ञा पालन करना, इन्द्रियों का दमन करना अहिंसादि सदाचार प्रवृत्तिमाना एवं काव्यवहार गुरु सेवा व भक्ति के साधन हैं । इन प्रवृत्तियों से गुरु प्रसन्न रहते हैं 115 | गौतम विद्वान ने कहा है : सदादेशकरो यः स्यात् स्वेच्छया न प्रवर्तते 1 विनयव्रतचर्याद्याः सशिष्यः सिद्धिभाग्भवेत् ॥1॥ अर्थ :- जो शिष्य निरन्तर गुरु आज्ञा पालन व अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति का निरोध करता है और विनय एवं व्रत पालन में तत्पर रहता है उसे विद्यालाभ होता है 111 || अहिंसा, सत्य, अचौयादि व्रतों का पालन, सदाचार, विद्याध्ययन और अपने से बड़े वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्धों में नमस्कारादि विनय करना, उनके साथ नम्रता का व्यवहार करना विनय है। जैनागम में आचार्य कहते हैं "विनयो मोक्खद्वारम् । " विनय मुक्ति का द्वार है। माता-पिता, शिक्षागुरु, धर्मगुरु आदि महापुरुषों का यथायोग्य विनय, नमन, आज्ञापालनादि करना विनय है ।। विनयशील का यश सम्मान, विद्वता, अध्यनादि सद्गुण वृद्धि को प्राप्ति होते हैं । " गर्ग " ने कहा है : व्रतविद्याधिका ये च तथा च यत्तेषां क्रियते भक्तिर्विनयः स वयसाधिकाः उदाहृतः अर्थ :- व्रतपालन से जो उत्कृष्ट पूज्य, एवं विद्याध्ययन से महान और वयोवृद्ध हैं उनकी भक्ति करना "विनय" कहा जाता है ।।1 16 ॥ 1 113 1 महापुरुष, गुरुजनों व वय-ज्ञान-अनुभव वृद्धों का विनय करने से शास्त्रों का रहस्य ज्ञात होता हैं, बुद्धि तीक्ष्ण होती है, लौकिक व्यवहार ज्ञान में नैपुण्य आता है। माता-पितादि की विनय से शिष्टों द्वारा सम्मान व समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यह विनय का फल है । इस लोक के समान ही परलोक में भी स्वर्गादि सुख व क्रमशः शिव-मोक्ष प्राप्ति होती है ॥7॥ विद्याभ्यास का फल : गुरु वचनमनुल्लंघनीयमन्यत्राधर्मानुचिताचारात्मप्रत्ययवायेभ्यः ॥9॥ 300
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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