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________________ नीति वाक्यामृतम् उत्तापकत्व हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः ॥134॥ शरद्घना इव न खलु वृथालापा गलगर्जितं कुर्वन्ति सत्कुल जाताः ।।135॥ अन्वयार्थ :- (उत्तापकत्वम्) व्याकुलता (हि) निश्चय से (सर्वकार्येषु) समस्त कार्यों की (सिद्धीनाम्) सिद्धियों का (प्रथमः) पहला (अन्तरायः) विघ्न है । (शरधनाः) शरतकाल के बादल (इव) समान (खलु) निश्चय से (वृथालापा) व्यर्थ गर्जना (सत्कुलजाताः) उत्तम कुलोत्पन्न मनुष्य (गलगर्जितम्) गाल बजाना-बकवाद (न) नहीं (कुर्वन्ति) करत हैं 1134-135 ।। विशेषार्थ:- जो मनष्य कर्तव्य पालन करने में आकल-व्याकल हो जाता है. उसका कार्य सिद्ध नहीं होता । अतएव कार्य सिद्धि में उतावली नहीं करना चाहिए ।। गुरु विद्वान भी कहते हैं : व्याकुलत्वं हि लोकानां सर्व कृत्येषु विधनकृत् ॥ पार्थिवानां विशेषेण येषां कार्याणि भूरिशः ॥1॥ अर्थ :- लोक में पुरुषों की घबराहट-आकुलता सभी कार्यों में विघ्नोत्पादक है । विशेष रुप से राजाओं के कार्यसिद्ध होने में उनका उतावलापन विशेष बाधक होता है । अतः राजाओं को धीर वीर होना अनिवार्य है ।134॥ कलीन पुरुष जलविहान मेघों की भाँति व्यर्थ गर्जना, गडगडाहट नहीं करते । जिस प्रकार शरतकाल के मेघ तीव्र गर्जना करते हैं परन्तु वरसने का नाम निशान भी नहीं रहता । इस प्रकार सत्पुरुष या श्रेष्ठ नृपति व्यर्थ की गर्जना नहीं करते। अपितु पराक्रम दिखाते हैं । गौतम विद्वान ने लिखा है :.. वृथालापन भाव्यं च भूमिपालैः कदाचन । यथा शरद् घना कुर्युस्तोयवृष्टिविवर्जिताः ॥ अर्थ :- पृथ्वी पतियों द्वारा कार्य शून्य वृथा वीरत्व के प्रदर्शन की डींग हाकना उचित नहीं । शरद् कालीन मेघ मात्र गर्जते हैं पानी नहीं बरसाते । उनकी गडगडाहट का क्या प्रयोजन कुछ नहीं। अभिप्राय यह है कि महत्व कर्मठता का है, कार्यसम्पन्नता नहीं तो व्यर्थ बखान से क्या ? कुछ नहीं । अच्छी-बुरी वस्तु का दृष्टान्त : न स्वभावेन किमपि वस्तु सुन्दरमसुन्दरं वा, किन्तु यदेव यस्य प्रकृति तो भाति तदेव तस्य सुन्दरम् ।।1361.न तथा कर्पूररेणुना प्रीतिः केतकीनां वा यथाऽमेधयेन 137 ॥ अन्वयार्थ :- (किम् अपि) कोई भी (वस्तु) पदार्थ (स्वभावेन) प्रकृति से (सुन्दरम् असुन्दरम् वा) सुन्दर अथवा बुरी (न) नहीं [अस्ति] है (किन्तु) परन्तु (यस्य) जिसकी (प्रकृतितः) स्वभाव से (यदा) जब (एव) ही (भाति) पसंद आवे (तदा) उस समय (एव) ही (तस्य) उसके लिए (सुन्दरम्) अच्छी है ।136 ॥ मक्खियों को (कर्पूर रेणना) कपूर के चूर्ण से (वा) अथवा (केतकीनाम्) केतकी पुष्प की गंध (तथा) उस प्रकार (प्रीतिः) आनन्दकारी (न) नहीं (यथा) जिस प्रकार (अमेधयेन) मल मूत्रादि ।137॥
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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