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नीति वाक्यामृतम्।
N न ही उसका प्रयोग करे तो राजा राज्य दोनों ही संकटापन्न होंगे । भारद्वाज ने कहा है :
यो राजा मंत्रिणां वाक्यं न करोति हितैषिणाम् ।
न स तिष्ठेच्चिरं राज्ये पितृ पैतामहे ऽपि च ।।1॥ अर्थ :- जो राजा अपने हितैषी मंत्री की हितकारी राय को यदि नहीं सुने तो वह राजा अधिक काल तक सुरक्षित नहीं रह सकता । वह निश्चित ही अपने पिता, दादा से चला आया राज्य चिराकाल नहीं रह सकता । शीघ्र ही राजा सहित राज्य नष्ट हो जायेगा । अत: राजा का कर्तव्य है मन्त्रणा से बद्ध होकर ही राज्य संचालित करें इसे ध्यान में रखना चाहिए । यह राजनीति का नियम है "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता" इसी प्रकार मंत्री की उपेक्षा कर राजा राज्य नहीं चला सकता 1158 || पुनः मंत्रणा का माहात्म्य :
सुविवेचितान्मंत्राइनोल कार्गसिद्धि दि स्वामिनो न दुराराहः स्यात् ।।59 ।।
अन्वयार्थ :- (यदि) अगर (स्वामिनः) राजा का (दुराग्रहः) हठाग्रह (न) नहीं (स्यात्) होगा तो (सुविवेचिततात्) सम्यक विवेचना किया गया (मन्त्रात्) मन्त्र से (कार्यसिद्धिः) कार्य की पूर्णता (भवति एव) होती ही है।
यदि राजा दुराग्रही न हो तो पूर्वापर सम्यक् विवेचना कर की गई मन्त्रणा अवश्य ही सफल होती है।
विशेषार्थ :- मंत्रिमण्डल अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ बनायेगा और शत्रु को सैनिक शक्ति को क्षीण देखता है, एवं देश काल का विचार करके सन्धि-विग्रहादि कार्य प्रारम्भ करता है तो उसकी विजय नियम से अवश्यंभावी है । परन्तु इस अवसर राजा की अनुमति भी परमावश्यक है, उसे दुराग्रही नहीं होना चाहिए 159॥ ऋषिपुत्रक ने भी लिखा है :
सुमंत्रितस्य मंत्रस्य सिद्धिर्भवति शाश्वती ।
यदि स्यान्नान्यथा भावो मंत्रिणा सह पार्थिवः ।। अर्थ :- यदि पार्थिव-राजा विरोध न करे, दुराग्रही न हो तो अच्छी तरह से प्रकाशित-विचारित मंत्रणा की सिद्धि निः सन्देह नियम से होती ही है ।
अभिप्राय यह है कि राजा को मंत्री-सचिव समूह की अपेक्षा रखनी चाहिए । दुराग्रह या हठाग्रह में नहीं पड़ना चाहिए ।।59॥ पराक्रम शून्य राजा की हानि :
__ अधिक्रमतो राज्यं वणिक् खड्ग यष्टिरिव ।।60 ॥ अन्वयार्थ :- (अविक्रमतः) पराक्रमरहित (राज्य) राज्य (वणिक् खड्गयष्टिः) बनिया-व्यापारी सेठ की तलवार (इव) समान [अस्ति] है ।
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