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नीति वाक्यामृतम् ।
उन्मार्ग पर आरुढ राजा को कठोर उक्तियाँ द्वारा सन्मार्ग पर लगाना चाहिए । मन्त्री वही सच्चा और हितैषी होता है जो राजा को अकर्तव्य से हटा कर सन्मार्ग पर लगाकर उसका कल्याण करे 1153 ।। मंत्रियों का कर्तव्य :
मंत्रिणो राजद्वितीय हृदयत्वान्न केनचित् सह संसर्ग कुर्युः ।।55॥ अन्वयार्थ :- (मन्त्रिणः) मन्त्री (राज्ञः) राजा के (द्वितीय) दूसरे (हृदयत्वात्) हृदय होने से (केनचित्) किसी के (सह) साथ (संसर्गम्) सम्बन्ध (न) नहीं (कुर्युः) करना चाहिए ।
__मन्त्री राजा के हृदयद्वितीय हृदय समान होते हैं अर्थात् राजा ही समझना चाहिए । उसे अन्य के साथ सम्बन्धस्नेहादि नहीं करना चाहिए । इस विषय में शुक्र ने कहा है:
मंत्रिणः पार्थिवेन्द्राणां द्वितीयहृदयं ततः ।
ततोऽन्येन न संसर्गस्तैः कार्यों नृपवृद्धये ।।1॥ अर्थ :- मंत्री लोग राजाओं के हृदय स्वरूप होते हैं । इसलिए उन्हें स्वामी राजा के अतिरिक्त अन्य किसी के भी साथ विशेष सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए । अभिप्राय यह है कि मंत्री को पूर्ण विश्वास पात्र होना चाहिए और राजा का हर प्रकार से हित करने में उद्यमशील होना चाहिए ।155 ॥ राजा के सुख-दुःख का मंत्रियों पर प्रभाव :
राज्ञोऽनुग्रहविग्रहावेव मंत्रिणामनुग्रहविग्रहौ ।।56 ॥ अन्वयार्थ :- (राज्ञः) राजा का (अनुग्रह) सुख सम्पदा (विग्रहो) दुख में (एव) ही (मन्त्रिगणाम्) मन्त्रियों का (अनुग्रह विग्रहौ) सुख व दुख (संभवति) संभव होता है ।
मन्त्रियों का कर्तव्य है कि वे राजा के हित की अपेक्षा रखकर ही कार्य करें । क्योंकि राजा का सुख व दुःख ही मंत्री का सुख व दुःख है ।
विशेषार्थ :- यदि भूपाल कर्त्तव्य-अनाचार की ओर कदम उठाता है तो मन्त्री कदापि सहयोग न दें । क्योंकि नृपति का हित किस में है वही राय देनी चाहिए । कुन्द कुन्द स्वामी कहते हैं :
साधूद्योगेषु सुप्रीतिः साधनानां विनिश्चयः ।
सम्पतिः स्पष्टरूपा च मंत्रदातुरिमे गुणाः ॥4॥ अर्थ :- परामर्शदाता सचिव का प्रधान गण है कि उचित, अनकल उद्योगों का चुनाव करे और प्रीति-पूर्वक उन्हें कार्यरूप में परिणत भी करे । अर्थात् उसके सम्पादन के कारणों का यतन करे । तथा सम्मति प्रदान करते समय निश्चयात्मक और स्पष्ट, निर्णय दे । इस रीति से वर्तन करने वाला सफल मंत्री होता है । करल का.अ.64.64. हारीत विद्वान ने भी लिखा है :
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