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नीति वाक्यामृतम् ।
अन्वयार्थ :- (छात्रः) विद्यार्थी (वत्) के समान (अननुष्ठाने) कार्य रूप आचरण में नहीं लाने पर (मन्त्रेण) मन्त्र से (किम्) क्या [प्रयोजम् अस्ति] क्या अर्थ सिद्ध होता है ? कुछ नहीं ।
किसी भी निर्णीत कार्य को शीघ्रातिशीघ्र कार्यान्वित करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- किसी भी कार्य की योजना निश्चित होते ही उस धारणा को कार्यान्वित कर लेना चाहिए | अन्यथा प्रमादी विद्यार्थी के समान समस्त श्रम व्यर्थ हो जायेगा । जिस प्रकार प्रमादी शिष्य गुरु के पास मन्त्र तो सीख ले, परन्तु तदनकूल उसका प्रयोग न करे । जापादि अनुष्ठान नहीं करे तो वह मन्त्र सीखना व्यर्थ ।। शुक्र विद्वान ने इस विषय में निम्न विचार व्यक्त किये हैं :
यो मन्त्र मन्त्रयित्वा तु नानुष्ठानं करोति च ।।
. स तस्य व्यर्थतां याति छात्रस्येव प्रमादिनः ।।1॥ अर्थ :- जो विजीगषु मन्त्र का निश्चय करके तदनुसार यदि कार्य नहीं करता है, उसका यह मन्त्र प्रमादीआलसी विद्यार्थी की भाँति व्यर्थ ही हो जाता है ।। सर्वत्र पुरुषार्थ की महिमा है । प्रत्येक कार्य की सिद्धि सत्पुरुषार्थ से होती है 143 ॥ इसी का दृष्टान्त से समर्थन :
न हौषधि परिज्ञानादेव व्याधिप्रशमः ।।44।। अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (औषधिपरिज्ञानात्) औषधि की जानकारी मात्र से (ऐव) ही (व्याधिः) रोग (प्रशमः) उपशम (न) नहीं (भवति) होता है । 44॥
दवाई के गुणमात्र ज्ञात करने से रोगोपशम नहीं होता, अपितु उसका यथाविधि यथोचित सेवन करने से व्याधि का नाश होता है । उसी प्रकार केवल गुप्तमन्त्रणा कर किसी कार्य की योजना मात्र बनाने से इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती, अपितु उसे कार्यान्वित करने से होती है ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार औषधि का ज्ञान मात्र रोग नाश का कारण नहीं, अपितु उसका यथाकाल, यथाविधि प्रयोग करने से इष्ट कार्य स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार मन्त्रणा का प्रयोग करने से सन्धि-विग्रहादि उद्देश्य की सिद्धि होती है। विद्वान नारद ने भी कहा है :
विज्ञाते भेषजे यद्वत् बिना भक्षं न नश्यति ।
व्याधिस्तथा च मन्त्रेऽपि न सिद्धिः कत्यवर्जिते ।। अर्थ :- औषधि ज्ञात होने पर भी, जिस प्रकार उसके भक्षण किये बिना रोग शान्त नहीं होता उसी प्रकार मन्त्रणा सिद्धि भी उसके प्रयोग के बिना नहीं हो सकती । अभिप्राय यह है कि योजना को यथाशक्ति शीघ्रतिशीघ्र कार्यान्वित करना चाहिए ।
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