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नीति वाक्यामृतम्
अन्याय अत्याचारादि प्रवृत्तियाँ राजा की शत्रु हैं उनसे दूर रहना उसका कर्त्तव्य है ।
अपराधियों को दण्ड विधान न करने से हानि :
अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्य न्यायमुत्पादयति, वलीवानाऽवलं ग्रसति इति मात्स्य न्यायः ॥ 7 ॥ अन्वयार्थ :(हि) निश्चय से (अप्रणीतो ) अनावश्यक अप्रिय (दण्ड) दण्ड (मात्स्यन्यायम्) मात्स्य न्याय को ( उत्पादयति) उत्पन्न करता है । ( वलीवान) वलवान ( अवलम् ) निर्बल को (ग्रसति) खाता है (इति) इसे ( मात्स्य न्याय) मत्स्य न्याय [ कथ्यते ] कहा जाता है ।
यदि अपराधियों को सर्वथा दण्ड नहीं दिया जाय तो राज्य में "मात्स्यन्याय" फैल जायेगा । जिस प्रकार जल में एक साथ रहने वाली भी मछलियाँ- बड़े मत्स्य छोटी-छोटी मछलियों को खा जाती हैं । इसी प्रकार निरंकुश राज्य व्यवस्था में राजा का भय नहीं रहेगा तो प्रजा जन परस्पर सबल निर्बल को सतायेंगे, और धीरे-धीरे लोगों की आस्था राजा और राज्य के प्रति नष्ट होने से राज्य ही समाप्त हो जायेगा ।
विशेषार्थ :- न्यायवन्त राजा को अपराध के अनुसार न्याय युक्त दण्ड व्यवस्था करनी चाहिए । प्रजा की श्रीवृद्धि, सुख-शान्ति जिस रीति से हो वहीं कार्य राजा को करना उचित है । गुरु विद्वान ने भी लिखा है
दण्ड्यं दण्डयति नो यः पाप दण्डसमन्वितः । तस्य राष्ट्रे न सन्देहो मात्स्यो न्यायः प्रकीर्तितः ॥1 ॥
अर्थ :- जो राजा पापयुक्त दण्ड देता है अर्थात् पक्षपात करता है, दण्डयुक्त या दण्ड देने योग्य अपराधियों को दण्ड नहीं देता और निरपराधों को सताता है उसके राज्य में मत्स्यन्याय प्रवर्तित हो जाता है । सबल निर्बलों को सताते हैं । फलतः सर्वत्र अराजकता छा जाती है। राज्य में घोर अशान्त वातावरण हो जाता है । शिष्टाचार व सदाचार नहीं रह पाता। सब ओर वर्वरता नजर आने लगती है फिर भला सुख शान्ति कहाँ ? अतः प्रजासुखी रहे, सर्वत्र शान्ति छाये । सब अमन-चैन की वंशी बजायें इसके लिए राजा को न्यायपूर्वक उचित 'दण्डनीति' का प्रयोग करना चाहिए ।
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'॥ इति दण्डनीति समुद्देशः ।। "
इति श्री प. पू. प्रातः स्मरणीय विश्व वंद्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् आचार्य श्री महानूतपस्वी, वीतरागी दिगम्बराचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महाराज की परम्परा के पट्टशिष्य तीर्थभक्त शिरोमणि, समाधि सम्राट् आचार्य परम देव श्री 108 महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था, प.पू. कलिकाल सर्वज्ञ श्री 108 आचार्य विमलसागर जी की शिष्या, सिद्धान्त विशारदा, ज्ञानाचिन्तामणि प्रथम गणिनी 105 आर्यिका विजयामती द्वारा हिन्दी भाषा विजयोदय टीका का 9वां समुद्देश श्री प. पू. श्री आचार्य अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश 108 सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।
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