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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थ :- (स्वधर्माः) अपना-अपना कर्त्तव्य (असंकरः) स्वतंत्र, बिना मिलावट के (प्रजानाम्) प्रजा का (राजानम्) राजा का [भवति] होता है [तत्र] वहाँ (त्रिवर्गेण, उपसन्धत्ते) त्रिवर्ग से अलंकृत होते हैं । जिस राज्य में राजा-प्रजा अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं वहाँ धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थ समान रूप से वृद्धिंगत होते रहते हैं । विशेषार्थ :- कर्त्तव्य के साथ उन्नति व अवनति जडी रहती है । कर्तव्यों का यथोचित पालन उन्नति का आधार है और इनका एक दूसरे में मिश्रण होना - अर्थात् ब्राह्मण का काम शूद्र और शूद्र का क्षत्रिय, वैश्य का विप्र करे तो सभी विफल होंगे । सभी के पुरुषार्थ भी अस्त व्यस्त हो जायेंगे । विद्वान नारद ने भी कहा है न भूयाद्या देशे तु प्रजानां वर्णसंकरः । तत्र धर्मार्थकामं च भूपतेः सम्पजायते ।।1॥ अर्थ :- जिस देश में प्रजा के अन्दर वर्णसंकरता नहीं होती, वहाँ धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थ एक साथ राजा को सिद्ध होते हैं । अर्थात जिसके राज्य में सभी वर्ग के लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं उसके राज्य में तीनों पुरुषार्थ फलते-फूलते हैं । वर्ण संकरता नहीं होना चाहिए । कर्त्तव्य च्युत राजा की कटु आलोचना : स किं राजा यो न रक्षति प्रजाः ।।21॥ अन्वयार्थ :- (सः) वह (किम्) क्या (राजा) नृपति है (यः) जो (प्रजाः) प्रजा को (न) नहीं (रक्षति) रक्षा करता है । वह राजा कहलाने का अधिकारी नहीं है जो प्रजा की रक्षा नहीं करता है । विशेषार्थ:- राजा का धर्म है प्रजा का रक्षण करना । यदि प्रजापालन में प्रमादी है तो वह राजा कहलाने का अधिकारी नहीं है । व्यास विद्वान का कथन है कि : यो न राजा प्रजाः सम्यभोगासक्तः प्ररक्षति । स राजा नैव राजा स्यात् स च का पुरुषः स्मृतः ॥1॥ अर्थ :- जो राजा विषय भोगों में लम्पटी बना रहता है वह प्रजा की यथोचित रक्षा नहीं करता । उसे राजा नहीं कायर पुरुष समझना चाहिए । राजा को प्रजा का पालन करना परम कर्त्तव्य है । कर्तव्यनिष्ठ राजा ही यथार्थ राजा कहलाने का अधिकारी है 121॥ अपने-अपने धर्म का उल्लंघन करने वालों के साथ राजा का कर्त्तव्य : स्वधर्ममतिकामतां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः ।।22 ।। 189
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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