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नीति वाक्यामृतम् - ही सर्वज्ञ आस हो सकता है । एवं वहीं द्वादशाङ्ग वाणी का वक्ता होने योग्य हो सकता है । शास्त्रों का उपदेशक हो सकता है 14 15 16 1.
उपर्युक्त असाधारण गुण श्री ऋषभादि-महावीर पर्यन्त समस्त 24 तीर्थकरों में विद्यमान हैं । अतएव आचार्य श्री के उक्त प्रमाणों से हम इस तत्त्व पर पहंचते हैं कि ये तीर्थकर्ता परमदेव अर्हन्त ही परम देवाधिदेव पज्य श्रद्धेय. उपासनीय हैं । यद्यपि सभी तीर्थंकर समान गुण, शक्ति युक्त हैं तो भी जिस मनुष्य की जिस तीर्थंकर के प्रति श्रद्धाआस्था विशेष हो वह उसी के विम्ब-प्रतिमादि की स्थापना कर पूजा भक्ति कर सकता है । ऐसा आशय आचार्य श्री का समझना चाहिए। बिना भक्ति के उपासना किये हुए देव से हानि :
अभक्त्या पूजोपचारः सद्यः शापाय Im8॥ "अभक्तैः कृतः पूजोपचार: सद्यः शापाय भवति" यह भी पाठान्तर है ।
अन्वयार्थ :- (अभस्तया) भक्ति बिना (पूजोपचारः) पूजादि (सद्यः) शीघ्र ही (शापाय) अनिष्टकारी [भवति] होती है ।
विशेषार्थ :- औषधि के प्रति श्रद्धा न हो तो अति उत्तम, बहुमूल्य, प्रसिद्ध औषधि भी रोगनाशक सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार आराध्य के प्रति श्रद्धा नहीं है तो उसकी भक्ति, पूजा, उपासनादि अनुष्ठान कार्यकारी नहीं हो सकते । क्योंकि श्रद्धा के अभाव में पूजक की चित्त रूपी भमि में भक्ति रूपी वीजारोपण नहीं हो सकता । वीजाभावे अंकुर, वृक्ष, पत्र, पुष्प व फल कहाँ ? नहीं हो सकते । अतः श्रद्धा मूल है । प्रथम उसका होना अत्यावश्यक
वर्ण व आश्रम वालों के कर्त्तव्यच्युत होने पर उसकी शुद्धि का निर्देश
"वर्णाश्रमाणां स्वाचार प्रच्यवने त्रयीतो विशुद्धिः ॥9॥ अन्वयार्थ :- (वर्णाश्रमाणाम्) चारों वर्णों व आश्रमस्थों को (स्वाचार) अपने कर्तव्य से (प्रच्यवने) च्युति होने पर (त्रयीतः) त्रयी-आध्यात्म्य विद्या से (विशुद्धिः) शुद्धता [कर्त्तव्या] करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र ये चार वर्ण हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम हैं । इनके पृथक्-पृथक् कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं जिनका वर्णन पूर्व में किया ही है । उनसे जो कोई भी किसी प्रकार स्खलित हो जाय, दोष लग जाय तो उसका कर्तव्य है कि तत्काल शास्त्रोक्त-आगमोक्त विधि से उसका परिहार कर शुद्धि कर लेना चाहिए । आध्यात्म-त्रयीवार्ता-आचार शास्त्र-धर्मशास्त्र सबकी शुद्धि में सक्षम
राजा-प्रजा को त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति का उपाय :
स्वधर्माऽसंकरः प्रजानां राजानं त्रिवर्गेणोपसन्धत्ते 120॥
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