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नीति वाक्यामृतम् ।
नील वर्ण पर जिस प्रकार दूसरा रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार दुराग्रही, मूर्ख नृपति पर भी सन्मार्ग का रंग । चढ़ना दुर्लभ है । कौन चला सकता है अर्थात् 'कोई नहीं ।
विशेषार्थ :- किसी भी वस्तु की प्रकृति-स्वभाव को बदलना-सरल नहीं है । नीम मधुर नहीं हो सकता और इक्षु कटु नहीं हो सकता, उसी प्रकार दुर्जन को सज्जन में बदलना संभव नहीं कहा जा सकता । कहा भी है .. नारद का वचन है :
दुर्विदग्धस्य भूपस्य भावः शक्येत नान्यथा ।
कत्तुं वर्णोऽत्र यद्वच्च नीलीरक्तस्य वाससः ॥1॥ अर्थ :- नील वर्ण से रंजित वस्त्र के समान दुराग्रही-हठी राजा को तथा उसके अभिप्राय को बदलना अशक्य है ।
मूर्ख व दुराग्रही, अपनी ही हठ पर अड़ा रहता है । उसके दुरभिप्राय को प्रथम तो समझना ही दुर्लभ है क्वचित् समझ में भी आ जाय तो उसमें परिवर्तन लाना असंभव-अशक्य है । क्योंकि वह स्वयं को दुर्बुद्धि होने पर भी सर्वोपरि विद्वान समझता है । किसी की बात मानना तो दूर रहा सुनना भी नहीं चाहता । यदि वलात् कोई उसे हितकर कहता भी है तो उसका ही अहित कर देता है । उसे कहा है :
सीख ताको दीजिये जाको सीख सुहाय ।
सीख दीनी बानरा को, घर वया का जाय ॥ अतएव सुनिश्चित है कि मूर्ख दुराग्रही राजा राज्य-राष्ट्र का विनाशक ही होगा क्योंकि हितकारी पथ्य उसे अरुचिकर होता है । हितैषियों की अवहेलना उसे इष्ट होती है फिर सुधार कहाँ ? अतः उससे राज्य की श्रीवृद्धि होना संभव नहीं हो सकता । हितकारकों का कर्त्तव्य कहते हैं :
यथार्थ वादो विदुषां श्रेयस्करो यदि न राजा गुणप्रद्वेषी ॥77॥ अन्वयार्थ :- (यदि) अगर (राजा) भूपति (गुणप्रद्वेषी) गुणों से द्वेष (न) नहीं करता हो तो (विदुषाम्) विद्वानों को (यथार्थ) यथोचित (वादः) कथन करना (श्रेयस्कर:) कल्याणकारी (अस्ति) है ।
यदि राजा गुणग्राही है तो विद्वज्जनों को उसे हितकारक, राज्यशासन के योग्य शिक्षा देना श्रेयस्कर हैकल्याणकारी है।
विशेषार्थ :- उपजाऊ भूमि में बीजारोपण करना लाभप्रद होता है । बंजर भूमि में डाला बीज निष्फल जाता है। इसी प्रकार सरल परिणामी-गुणग्राही राजा को हितकर उपदेश दिया जाय तो प्रजा के लिए उपकारी होता है अन्यथा हानिकारक ही होता है । यथार्थ वचन श्रवण करने वाला नृपति विद्वानों की बात सुनता है और उसे धारण करने की चेष्टा करता है। अतः उसे उपदेश देना सार्थक है ।
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