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नीति वाक्यामृतम्
यह विद्या आजीविका के साधन - 1. असि 2 मषि, 3 कृषि, 4. वाणिज्य शिल्प, कलादि का परिज्ञान कराती है । अतः इस विद्या का अध्येता इन समस्त सुविधाओं को प्रदान कर प्रजा को सुख-समृद्ध बनाता है । सबको सुखी-सम्पन्न बनने का मार्ग दर्शन कर प्रजा का पालन-पोषण करता है । जो पर को प्रसन्न, शान्त और सुखी बनाता है वह स्वयं भी प्रमुदित और सुखी एवं सर्वप्रिय यशस्वी रहता है ।
दण्डनीति में प्रवीण राजा का लाभ बताते हैं
यम इवापराधिषु दण्डप्रणयनेन विद्यमाने राज्ञि न प्रजाः स्वमर्यादामतिक्रामति प्रसीदन्ति त्रिवर्गफलाः विभूतयः 1160 ॥
अन्वयार्थ (यम) मृत्यु ( इव) समान (अपराधिषु) अपराधियों में (दण्डप्रणयनेन ) दण्ड का प्रयोग करने से (राज्ञि) राजा के ( विद्यमाने ) विद्यमान रहने पर (प्रजा) प्रजाजन (स्वमर्यादाम्) अपनी-अपनी मर्यादा (न) नहीं (अतिक्रामन्ति) उलंघन करते हैं एवं (त्रिवर्गफलाः) धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को फलाने वाली (विभूतयः) विभूतियाँसाधन (प्रसीदन्ति ) प्रसन्न होते हैं ।
योग्य - अपराधानुसार उचित नीतिपूर्वक दण्ड देने वाला नृपति अन्याय नहीं करता । अतः उसके दण्ड प्रयोग से भयातुर प्रजा सन्मार्गगामी बनी रहे प्रत्येक वर्ग-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनी अपनी मर्यादानुसार कार्यरत रहते हैं । परस्पर प्रीति और सन्तोष का व्यवहार रखते हैं, सभी सुख-समृद्ध बने रहते हैं । कोई किसी से ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, पराभव रूप व्यवहार नहीं करते । अतः सभी अपने-अपने क्षेत्र में खुशहाल रहते हैं ।
दण्डनीति का ज्ञाता भूपति प्रजा सहित खुशहाल निश्चिन्त रहता है । क्योंकि कोई भी अपने कर्त्तव्य और मर्यादा का उलंघन नहीं करता । राज्य अमन-चैन से तीनों पुरुषार्थ फलते फूलते हैं । स्व चक्र और परचक्र का भय तनिक भी नहीं रहता 1160 ॥
अन्यमतावलम्बियों की अपेक्षा आन्वीक्षिकी विद्या प्रति मान्यता :
सांख्यं योगो लोकायतिकं चान्वीक्षिकी बौद्धातोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकीत्वम् ) इति नैत्यानि मतानि ॥ 61॥
अन्वयार्थ :- (सांख्यम्) सांख्य (योग) योग (लोकायितकम्) लोकायत ये (आन्वीक्षिकी) आन्वीक्षिकी विद्या के मानने वाले हैं (च) और (बौद्धा:) बौद्धमतावलम्बी (आर्हतः) जैनदर्शन (श्रुतेः) वेद के ( प्रतिपक्षत्वात् ) विरोधी होने से (नान्वीक्षिकीत्वम्) आन्वीक्षिकी विद्या के ज्ञाता नहीं हैं (इति) इस प्रकार की ( नैत्यानिमतानि) अन्यमतियों की मान्यता ( अस्ति ) है ।
विशेषार्थ :सांख्य, योग और चार्वाक दर्शन नास्तिक दर्शन ये आन्वीक्षिकी- आध्यात्म विद्याएँ हैं । अर्थात् आध्यात्म विद्या के प्रतिपादक दर्शन हैं । बौद्ध और आर्हदर्शन - जैनदर्शन-वेदविरोधी होने से आध्यात्म विद्याएँ नहीं हैं, इस प्रकार अन्य नीतिकारों की मान्यता है ।
यहाँ पर आचार्य श्री ने अन्य नीतिकारों की मान्यता मात्र का उल्लेख किया है। क्योंकि आध्यात्म विद्या _ का समर्थक आर्हदर्शन वेदविरोधी होने मात्र से आन्वीक्षिकी विद्या से वहिर्भूत नहीं होता अन्यथा उनके ऊपर प्राप्त
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