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________________ IA नीति वाक्यामृतम् M को दण्ड देना अनिवार्य है अन्यथा राज्य में इन कुप्रवृत्तियों का अड्डा जम जायेगा । इन वार्ताओं का विवेचन करने वाली विद्या दण्डनीति विद्या कही जाती है । इस प्रकार ये चार राजविद्याएँ हैं । आन्विक्षिकी विद्या के पठन का लाभ : ___ अधीयानो ह्यान्विक्षिकी कार्याकार्याणां बलावलं हेतुभिर्विचारयति, व्यसनेषु न विषीदति नाभ्युदयेन विकार्यते समधिगच्छति प्रज्ञावाक्य वैशारधम् ।।57॥"प्रज्ञावाक्य" के स्थान में "प्रज्ञावान्" भी पाठ है । मु.मू. पूना की ह.लि. अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (आन्विक्षिकी) आन्विक्षिकी विद्या को (अधीयान:) पढ लेने वाला (कार्यम्) कर्त्तव्य (अकार्यम्) अकरणीय, (बलं) वीर्य (अबलम्) निशक्तता को (हेतुभिः) सम्यक् निमित्तों से भली-भाँति (विचारयति) विचार करता है (व्यसनेषु) जुआदि दुर्व्यसनों में (न) नहीं (निषीदति) फंसता है । (अभ्युदयेन) वैभवादि के द्वारा (न) नहीं (विकार्यते) कुत्सित होते हैं (प्रज्ञावाक्य वैशारद्यम्) सुविचारित कार्य कर्ता है (समाधिगच्छति) समाधिष्ठित विचारों से ज्ञात कर, शान्तभाव प्राप्त करते हैं । विशेषार्थ :- आन्विक्षिकी विद्या का पाठक व्यक्ति अपने करणीय-अकरणीय कार्यों के विचार में दक्ष हो जाता है । स्वयं के बलाबल को सम्यक् विचार करता है अनेकों उत्तम हेतुओं से सोच-विचार करता है । दुर्व्यसनों में नहीं फंसता, वैभवादि पाकर विकृत नहीं होता, उन्मत्त नहीं होता, शान्तभाव से सुविचार कर कार्य करने में संलग्न होता है ।। अब त्रयी विद्या के पढ़ने का लाभ कहते हैं :त्रयीं पठन् वर्णाश्रमाचारेष्वतीव प्रगल्भते, जानाति च समस्तामपिधर्माधर्म स्थितिम् ।।58॥ अन्वयार्थ :- (त्रयीं) त्रयी विद्या को (पठन्) पढ़ने वाला (वर्णाश्रमचारेषु) ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार आश्रमों में (अतीव) बहुत अधिक (प्रगल्भते) ज्ञान प्राप्त करता है, (च) और (समस्ताम्) सम्पूर्ण (धर्माधर्म) धर्म एवं अधर्म की (स्थितिम्) स्थितियों को (जानाति) विदित कर लेता है । त्रयी विद्या का वेत्ता चारों वर्षों की एवं धर्म-अधर्म के विषय में विशेष रूप से विभिन पहलुओं का परिज्ञान प्राप्त कर लेता है । पुण्य-पापादि की प्रक्रियाओं का ज्ञाता हो जाता है । कर्त्तव्य और अकर्तव्य की प्रक्रियाओं को सम्यक् प्रकार से प्रयुक्त करने में समर्थ हो जाता है ।।58 ।। वार्ता-विधा से क्या लाभ है?:युक्तित: प्रवर्तयन् वार्ता सर्वमपि जीवलोकमभिनन्दयति लभते च स्वयं सर्वानपि कामान् ।।59॥ अन्वयार्थ :- (वार्ता) वार्ता विद्या को (युक्तितः) सयुक्ति (प्रवर्तयन्) प्रयुक्त करता हुआ (सर्वम्) समस्त (जीवलोकम्) प्रजा जनों को (अपि) भी (अभिनन्दयति) प्रसन्न करता है (च) और (स्वयमपि) स्वयं भी (सर्वान्) समस्त (कामान्) इच्छित पदार्थों को (लभते) प्राप्त करता है । विशेषार्थ :- लोक में वार्ता विद्या का अध्येता राजा समस्त लोक को, प्रजा को आनन्दित करता है । क्योंकि जीवन की तीन प्रमुख समस्याएँ होती हैं - निवास स्थान - घर, शरीराच्छदन को वस्त्र और प्राण रक्षणार्थ भोजन।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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