SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् । विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथा विधवितर्कणमूहः ।।51॥ अर्थ :- व्याप्ति ज्ञान अर्थात् निश्चय किये गये धूमादि हेतू रूप पदार्थों के ज्ञान से अग्नि आदि साध्यरूप पदार्थों का ज्ञान करना ऊहा कहा जाता है । परीक्षामुख में भी कहा है । उपलम्भानुपलम्भ निमित्नं व्याप्ति ज्ञानमूहः ।।71॥ प.मु.माणिक्यनन्द उक्तानुक्त के निमित्त व्याप्ति के ज्ञान को तर्क ज्ञान-प्रमाण कहते हैं । उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् प्रत्यवाय संभावनया व्यावर्तनमपोहः ।।5211 अर्थ :- शिष्टात्माओं के उपदेश और युक्तियों प्रबल युक्तियों से प्रकृति, ऋतु और शिष्टाचार विरुद्ध पदार्थों में अपनी हानि या विनाश का निश्चय करके उनका त्याग करना और तत्वाभिनिवेश, उक्त विज्ञान और ऊहा-घोह द्वारा हितकारक पदार्थों का दृढ़ निश्चय करना अपोह है ।।52 ॥ __ अथवा ज्ञान सामान्यमूहो ज्ञानविशेषोऽपोहः 1153 ॥ अर्थ :- दूसरे प्रकार से अपोह का लक्षण इस प्रकार किया जा सकता है किसी पदार्थ के सामान्य ज्ञान का ऊह और विशेष ज्ञान को अपोह कहते हैं । उदाहरणार्थ जल देखकर "यह जल है" यह साधारण ज्ञान "ऊह" है और इससे तृपा का शमन होता है यह विशेषज्ञान "अपोह" हुआ । विज्ञानोहापोहानुगम विशुद्धमिदमित्थमेवेति निश्चयस्तत्वभिनिवेश: 11541 अर्थ :- उक्त विज्ञान, ऊह और अपोह आदि के सम्बन्ध से विशुद्ध होने पर यह "ऐसा ही है, अन्यथा नहीं हो सकता" इस प्रकार के दृढ़ निश्चयपूर्ण होने वाले ज्ञान को" तत्वाभिनिवेश" कहते हैं । भगवजिनसेनाचार्य ने भी उक्त आठ प्रकार के श्रोताओं के सद्गुणों का उल्लेख किया है कि सुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीति ये श्रोताओं के 8 गुण जानने चाहिए । यथा - शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । स्मृत्यूहापोहनिर्णीतिः श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ।। आ.पु.प.श्लो.146 उपर्युक्त विवेचन से निर्णीत होता है कि ये आठों गुण बुद्धि के विशेषण हैं । इन गुणों से युक्त पुरुष राज्य शासन कला में निपुण समझा जाता है । इस प्रकार का सत्पुरुष पृथिवीपति होता है तो सर्वत्र राज्य में सुख-शान्ति बने रहना स्वाभाविक है। "तत्वविचारिणी बुद्धिः'' कही है । अब विद्याओं का स्वरूप कहते हैं : ___ याः समधिगम्यात्मनो हितमवैत्यहितं चापोहति ता विद्याः ।।55 ।। अन्वयार्थ :- (याः) जो (समधिगम्य) अच्छी तरह अधीत होकर (आत्मनः) आत्मा के (हितम्) हित 126
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy