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________________ नातिवाक्यामृतम् हुए बिना शोभा नहीं पाते उसी प्रकार उत्तम कुलोत्पन्न युवराज भी नीतिविज्ञान और शस्त्र विद्या से सुसंस्कृत हुए ता बिना सिंहासनारुढ होने योग्य नहीं होता, वह शोभित भी नहीं होता है । सुसंस्कृत हुए ही वस्त्रालंकार भी शोभा पाते हैं । संस्कार विहीन नहीं । सदाचार व शिष्टाचार के संस्कार होना परमावश्यक है । निष्कर्ष यह है कि सुसंस्कारों से संस्कृत, राजनैतिक ज्ञान और सदाचार रूप संस्कारों से मण्डित होना चाहिए। शाण पर चढाई तलवार ही कार्यकारी होती है । सुपक्व भोजन ही स्वास्थ्य लाभ दे सकता है, उसी प्रकार सुसंस्कारोंराज्यशासन योग्य कला-विज्ञान से मण्डित युवराज ही राज्याधिकार योग्य होता है अन्यथा नहीं । इसीलिए उसे राजसत्ता को जीवन्त रखने वाली कला से भिज्ञ होना चाहिए ।।39॥ दुष्ट राजा से होने वाली प्रजा की क्षति वर्णन : न दुर्विनीताद्राज्ञः प्रजानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः 140॥ अन्वयार्थ :- (दुर्विनीतात् राज्ञः) न्याय-नीति ज्ञान रहित राजा से अधिक (प्रजानाम्) प्रजा के (विनाशात्) संहार से (अपर:) अन्य (उत्पात:) उपद्रव (न) नहीं (अस्ति) है । प्रजा को उपद्रित करने वाला दृष्ट-अन्यायी राजा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है । संसार में भूकम्पादि द्वारा प्रजा की क्षति देखी जाती है परन्तु अन्यायी दुष्ट राजा से बढ़कर अन्य कोई क्षति नहीं हो सकती । हारीत ने कहा है : उत्पातो भूमि कम्पाद्यः शान्तिकांति सौम्यताम् । नृप दुर्वृत्तः उत्यातो न कथंचित् प्रशाभ्यति ॥॥ अर्थ :- भूकम्पादि उपद्रव होने पर उनकी शान्ति भगवद् पूजा, मन्त्र जप, होमादि उपायों से संभव है परन्तु दुष्ट राजा से उत्पन्न उपद्रव शान्त होने का कोई उपाय नहीं है । कहावत है "बाढ ही यदि क्षेत्र (खेत) को खा जाय तो रक्षा क्या करेगा? रक्षक ही भक्षक बन जाय तो त्राण कहाँ ? शान्ति कहाँ ? इसी प्रकार कहावत है "राजा हो चोरी करे न्याय कौन घर जाय'' यदि स्वयं राजा ही चोर जार हो तो न्याय कौन करेगा ? कोई नहीं । अतः सर्वनाश का कारण है अयोग्य दुष्ट राजा । प्रजा का विकास तो दूर रहा दुर्जन शासक द्वारा सुसज्जित, सुसंस्कृत, कला-ज्ञान-विज्ञान-धर्मादि से सम्पन्न राज्य विनष्ट हो जाता है । अब दुष्ट राजा का लक्षण निर्देश : यो युक्तायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्तमतिर्वा स दुर्विनीतः 141॥ युक्तायुक्तयोगवियोगयोरविवेकमति वा स दुर्विनीतः ।। पाठान्तर 122
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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