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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जो मुनि अच्छे भाव से युक्त होकर शास्त्र के अर्थ में तल्लीन होता हुआ शास्त्र को पढता है वही H कर्म की बहुत अधिक निर्जरा करने के लिए समर्थ होता है । छहढाला में भी दौलतराम जी कहते हैं :
कोटि जन्म तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरे जे ।
ज्ञानी के छिन माहिं त्रिगुप्ति तें सहज टरें ते । अर्थात् करोड़ों जन्मों में अज्ञानी जितने कर्मों की निर्जरा करता है उतने कर्मों को ज्ञानी त्रिगुप्तियों-मन, वचन और काय के निरोध से क्षण मात्र में नष्ट कर देता है ।
ज्ञान की महिमा अपार है प्रत्येक मानव को अध्ययनशील होना चाहिए । मूर्ख मनुष्य की हीनता का वर्णन :
न ह्यज्ञानादपरः पशुरस्ति 1137॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (अज्ञानात्) अज्ञान से (अपरः) भिन्न (पशुः) चौपाया (न) नहीं (अस्ति)
संसार में मूर्खता के सिवाय अन्य कोई पशु नहीं है ।
विशेषार्थ :- चौपाया होने से ही मात्र पशु नहीं है अपितु दुर्बुद्धि ही पशु है । कारण कि पशु जिस प्रकार शुद्धाशुद्ध का विचार न कर घास आदि खाकर मलमूत्रादि क्षेपण करता है उसी प्रकार अज्ञानी, मूढ मनुष्य भी भक्ष्याभक्ष्य का विचार न कर चाहे जो कुछ भक्षण करता हुआ घूडे-पाखाने की वृद्धि करता है । अर्थात् मलमूत्रादि क्षेपण करता
वशिष्ठ नामक विद्वान ने भी कहा है :
मत्या मूर्खतमा लोकाः पशवः अंगवर्जिताः ।
धर्माधर्मों न जानन्ति यतः शास्त्र पराङ्मुखाः ।।7।। अर्थ :- महान मूर्ख जो शास्त्र ज्ञान से पराङ्मुख हैं, धर्म-अधर्म में भेद नहीं करते हैं वे बिना सींग पूंछ के पश हैं । नीतिकार कहते हैं :
आहार निद्राभय मैथुनं च, सामान्य मेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधि को विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।। अर्थ :- अनादिकाल से ज्वर के समान पीडाकारक चार संज्ञाएं जीव के साथ लगी हैं । वे चार संज्ञाएँ हैं - 1. आहार 2. भय 3. मैथुन और 4. परिग्रह । ये पशुओं और मनुष्यों दोनों में समान रूप से होती हैं परन्तु धर्म ही एक अमूल्य और अपूर्व वस्तु है जो पशु और मनुष्य में भेद स्थापित करती है । मनुष्य यदि धर्म विरहित है तो वह भी बिना सींग-पूंछ का पशु ही है । धर्मात्मा सिद्ध करने वाला ज्ञान है । ज्ञानार्जन करना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है ।
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