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- नीति वाक्यामृतम् आत्मारामो भवेद्यस्तु विद्यासेखन तत्परः ।
संसार तरणार्थाय योगभाग तिरुच्यते ।। अर्थ :- जो आत्मा में लीन हुआ विद्या के अभ्यास में तत्पर है और संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए ध्यान का अभ्यास करता है उसे यति कहते हैं । स्वामी समन्तभद्रजी ने भी लिखा है :
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥
र.क.श्री.
अर्थ :- जो पञ्चेन्द्रियों के विषयों की लालसा से रहित, आरम्भ और परिग्रह के त्यागी, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहे व तपस्वी-यति प्रशंसनीय है | वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी 'यति' कहलाता है । यशस्तिलक चम्पू में आचार्य श्री ने पर्यायवाची नाम निम्न प्रकार कहे हैं :
__ जितेन्द्रिय, क्षपणक, आशाम्बर, नग्न, ऋषि, यति, तपस्वी और अनगार आदि अनेक गुण निष्पन्न-सार्थक नाम कहे हैं। साधु का लक्षण :
भूपर्यको मृदुभुजलता गेन्दुकः खं वितानं । दीपश्चन्द्र : स्वरतिवनितासङ्ग लब्धप्रमोदः । दिक्कन्याभिः पवनचमरै-वींज्यमानोऽनुकू लम् । भिक्षु शेते नृप इव सदा वीतरागो जितात्मा ॥1॥
स्लो. सं. अर्थ :- भूमि जिनका पलंग, भुजाएँ तकिया, आकाश चादर, चन्द्र दीपक आत्मानुभूति नारी-पली, दिशाएँ कन्या, चमर पवन, अनुकूल हवा इस प्रकार के प्रतापी राजा के समान जो वीर-वीतरागी, जितात्मा हैं वे ही साधश्रेष्ठ यति कहलाते हैं । साधु का समागम सर्वपाप ताप हारी होता है -
गङ्गापापं शशीतापं दैन्य कल्पतस्तथा । पापं तापं च दैन्यं च हन्ति साधुसमागमः ।।63॥
श्लो. सं. अर्थ :- लोकोक्ति है गंगा पाप नाशक है, चन्द्र ताप और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है परन्तु साधु समागम पाप ताप और दैन्य तीनों का नाश करता है । अन्यमतापेक्षा यातयों के भेद :- .
कुटीचर वव्होदक हंस परम हंसा यतयः ।।26॥ अन्वयार्थ :- (यतयः) यति जन (कुटीचर:) कुटीचर (वव्होदकः) वव्होदक, (हंसः) हंस और व (परमहंसः) परमहंस (सन्ति) हैं।
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