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नीति वाक्यामृतम् नित्यनैमित्तिक परः श्रद्धया परया युतः ।
गृहस्थः पोच्यते सद्धिाश्रङ्ग पशुरन्यथा ।।1।। अर्थ :- जो मनुष्य उत्कृष्ट श्रद्धा से युक्त होकर नित्य और नैमित्तिक सत्कर्मों का पालन करता है उसे विद्वान गृहस्थ कहते हैं, किन्तु इससे विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला बिना सींगों का पशु है । सोमदेवाचार्य लिखते हैं
देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानश्चेति गृहस्थाणों षट् कर्माणि दिने-दिने । क्षान्ति योषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनो दैवत साधकः ॥2॥
यशस्तिलके सोमदेव सूरिः ।। अर्थ :- 1. जिसकी भकि, 2. गरुओं की उपासना, 3. शास्त्र-स्वाध्याय 4. संयम-अहिंसादि व्रतों का पालन और इन्द्रियों का दमन, 5. अनशनादि तप और 6. सुपात्रदान ये 6 कर्म गृहस्थों को नित्यही चाहिए ।
जो मनुष्य क्षमारूपी स्त्री में आसक्त, सम्यग्ज्ञान और अतिथियों को, पात्रों को दानादि में अनुरक्त रहता है और जितेन्द्रिय होता है उसे गृहस्थ कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं :
आश्रमाः खलुचत्वारस्तेषु धन्यागृहस्थिताः मुख्याश्रया हि ते सन्ति भिन्नाश्रम निवासिनाम् ॥ गृहीणां पञ्चकर्माणि स्वोन्नतिर्दे पूजनम बन्धुसाहाय्य मातिथ्यं, पूर्वेषां कीर्ति रक्षणम् ॥2॥
कुरल. प. छे. 5 अर्थ :- गृहस्थाश्रम चार आश्रमों में एक प्रमुख आश्रम है । इसमें रहने वाला गृहस्थ धन्य है क्योंकि अन्य आश्रम इसी के आश्रय से टिकते हैं । अर्थात् इसके रहने पर ही अन्य आश्रमों का जन्म होता है In ॥
गृहस्थों के मुख्य पाँच कर्त्तव्य हैं - 1. पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा करना, 2. जिनेन्द्र देव की पूजा-अर्चा करना, 3. अतिथि सत्कार-दान देना, 4, बन्धु-बान्धवों की यथायोग्य यथावसर सहायता करना और 5. आत्मोन्नति करना । उपर्युक्त षट्कर्मों से इनका कोई विरोध नहीं है मात्र संख्या में अन्तर है । भाव वही का वही है ।
ऐहिक और पारलौकिक सुखेच्छुओं का कर्तव्य है कि उक्त नित्यनैमित्तिक कर्तव्यों का विधिवत् आगमोक्त पद्धति से निर्दोष-निरतिचार पालन करें । गृहस्थों के नित्य करने योग्य सत्कार्यों का निर्देश :
ब्रह्मदेवपित्रतिथिभूत यज्ञा हि नित्यमनुष्ठानम् ।।20। अन्वयार्थ :- (ब्रह्माः) महर्षि गणधरादि (देवाः) तीर्थकर परमेष्ठी (पित्रः) माता-पिता गुरुजन
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