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-नीति वाक्पामृतम्
आत्मावलोकनं यस्य जायते नैष्ठिकस्य च ।
ब्रह्मचर्याणि सर्वाणि यानि तेषां फलं भवेत् ॥1॥ अर्थ :- जिस नैष्ठिक ब्रह्मचारी को आत्मा का प्रत्यक्ष हो जाता है, उसे समस्त प्रकार के ब्रह्मचर्य के फलस्वर्गादि प्राप्त हो जाते हैं । यह पद उच्च और श्रेयस्कर है क्योंकि वह कामवासना से विरक्त, जितेन्द्रिय, आत्मदर्शी और विशुद्ध होता है । अब गृहस्थ का लक्षण कहते है :
नित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः ।19॥ अन्वयार्थ :- (नित्य) प्रतिदिन (नैमित्तिक) अवश्य करने योग्य (अनुष्ठानस्थो) षट्कर्म पालन में दत्तचित (गृहस्थः) गृहस्थ होता है ।
गार्हस्थ जीवन की सक्रियाओं का नीतिपूर्वक पालन करना गृहस्थ का कर्तव्य है ।
विशेषार्थ :- अनुष्ठान-सत्कर्त्तव्य - 1. इण्या (पूजा) 2. वार्ता (न्यायवृत्ति से असि, मसि, कृषि, विधा, वाणिज्य और शिल्प इन जीविकोपार्जन की क्रिया) 3. दत्ति (दान-दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति) 4. स्वाध्याय (निर्दोष शास्त्रों का अध्ययन करना ) 5. संयम - (अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और तृष्णा त्यागपरिग्रह त्याग) 6. तप (अनशनादि तप) तथा नैमित्तिक - किसी निमित्त को लेकर उत्सवादि अनुष्ठान करना-यथा महावीर जयन्ती आदि । आर्ष में भी कहा है कि :कुल धर्मोऽयमित्येषामहत् पूजादि वर्णनम्
इग्यां वातां च दत्तिं च स्वाध्यायं संयम तपः। श्रुतोपासक सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृम्यादीनामनुष्ठितिः । असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च।।2।। कर्माणीमानि घोड़ा स्युः प्रजाजीवनहेतवे 1176॥ पर्व 16 चतुर्दा वर्णिता दत्तिापात्रसमन्वये ।। 1/2
'स्वाध्यायः श्रुतभावना' 'तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणं'
इति आदिपुराणे भगवान् जिनसेनाचार्यः पर्व 38 । उपर्युक्त विवेचन से गृहस्थ धर्म का विशद लक्षण स्पष्ट हो जाता है । भागुरी विद्वान ने गृहस्थ का लक्षण करते हुए कहा हैं :
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