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नीति वाक्यामृतम् ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार बालक का पालन-पोषण, रक्षण, शिक्षण आदि माता-पिता के आश्रित होते हैं, । उसी प्रकार प्रजा का पालन-पोषण संरक्षण भपति के आश्रित होता है । भप जिस प्रकार का शि
है प्रजा भी वैसी ही होती है क्योंकि वह उसी का अनुकरण करती है । कहा जाता है - नीति में - "यथा राजा तथा प्रजा"
राज्ञि धार्मिणि धर्मिष्ठा मध्ये मध्या समे समा ।
लोकास्तदनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ।। धर्मात्या राजा हो तो प्रजा भी उत्तम धर्मनिष्ठ होती है, मध्यम है तो बीच की और जघन्य परिणमन करे तो प्रजा भी उसी प्रकार की होती है । राजा अनुकरणीय होता है । नृपति के सहारे प्रजा का सुख-दु:ख चलता है । अतः योग्य राजा का कर्तव्य है पितृ वत् प्रजा पालन करे । विद्वान वर्ग ने भी युक्ति-पूर्वक कह
विज्ञेयः पार्थिवो धर्मः शिष्टानां परिपालनम् ।
दण्डश्च पायवृत्तीनां गौणोऽन्यःपरिकीर्तितः ।।1॥ अर्थ :- शिष्टों की रक्षा करना और पापियों - प्रजाकण्टकों - अपराधियों को सजा देना नृप का प्रधान धर्म समझना चाहिए । इससे दूसरे कर्तव्य उसके लिए गौण हैं । हर प्रकार से सुख शान्ति बनाये रखना पृथ्वी पति का कर्तव्य है । सबको यथायोग्य समानदृष्टि से देखने वाले भूपाल की प्रजा भी उसकी मित्र-पुत्रवत् आज्ञाकारी होती है । जिससे सभी कर्तव्यनिष्ठ बने रहते हैं । न्याय व धर्म मार्ग चलता रहता है । अतः राजा क्या करे -
अन्तरस्थास्तथा बाह्यान् दण्डान् दण्डेन दण्डयन् । भूपः करोति कर्त्तव्यमतस्तस्मिन्न दूषणम् ॥9॥
कुरल का. अर्थ :- जो नृप आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करता है, वह यदि अपराध करने पर उन्हें दण्ड दे तो यह उसका दोष नहीं है, किन्तु कर्तव्य है जिसका पालन उसे करना ही चाहिए । राजा को प्रजा वत्सल होना चाहिए अन्यथा राज्य स्थिति संतुलित नहीं रह सकती । कहा है :
जिसका ध्यान न न्याय में, दर्शन कष्ट निधान । वह नप पद से भ्रष्ट हो, बिना शत्रु हतमान ।18॥
कुरल का. अर्थ :- जिस राजा को प्रजा सरलता से उसके पास नहीं पहुँच सकती और जो ध्यानपूर्वक न्याय विचार नहीं करता, वह राजा अपने पद से भ्रष्ट हो जायेगा और शत्रुओं के न होने पर भी नष्ट हो जायेगा । अत: राजा को न्यायी होना चाहिए। तथा प्रजावत्सल होना चाहिए ।
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