________________
नीति वाक्यामृतम्
अर्थ विद्यावृद्ध समुद्देशः
राजा का लक्षण
योऽनुकूल प्रतिकूलयोरिन्द्रियमस्थानं स राजा ॥ अन्वयार्थ :- (यः) जो (अनुकूलस्य) अपने अनुकूल चलने वाले को (इन्द्रः) इन्द्रस्थानीय (प्रतिकूलस्य) विपरीत चलने वाले के लिए (यम) यमदूत (स्थानम्) स्थानीय हो (सः) वह (राजा) भूपति (भवति) होता है।
जो राज्य शासन के अनुकूल चलने वालों की इन्द्र के समान रक्षा करे और प्रतिकूल-विरुद्ध चलने वालों को यम के समान त्रास-दण्ड देने में समर्थ होता है वही राजा कहलाता है ।
विशेषार्थ :- शासन करने में दक्ष व्यक्ति ही राजा होता है । क्योंकि प्रजा में शिष्ट और दुष्ट, सदाचारीदुराचारी सभी प्रकार के लोग रहते हैं । सबको यथा योग्य साम, दाम, भेद, दण्ड द्वारा अनुशासित रखना पड़ता है । भार्गव नामक विद्वान ने भी कहा है -
वर्तते योऽरिमित्राभ्यां यमेन्द्राभः भूपतिः ।।
अभिषेको व्रणस्यापि व्यञ्जनं पट्टमेव वा ।। अर्थ :- राजा शत्रुओं के साथ काल के सदृश और मित्रों के साथ इन्द्र के समान प्रवृत्तिक्रम करने वाला होता है अर्थात् निग्रह और अनुग्रह करता है । कोई व्यक्ति केवल अभिषेक और पट्टबन्धन मात्र से राजा नहीं हो सकता उसे प्रतापी और शूरवीर-सुभट होना चाहिए । क्योंकि अभिषेक-जल से धोना और पट्टबन्धन-पट्टी बांधना यह तो व्रण (फोडे) को भी किया जाता है फिर वह भी राजा माना जायेगा । अत: योग्यता ही मान्य होती है । राजा के कर्तव्य कहते हैं -
राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ॥2॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (दुष्टनिग्रहः) दुर्जनों का निग्रह करना (च) और (शिष्टपरिपालनम्) सदाचारियों की रक्षा-पालन करना (राज्ञः) राजा का (धर्मः) धर्म-कर्त्तव्य (अस्ति) है ।
पापियों-अपराधियों को सजा देना और उन्हें सन्मार्गारूढ़ करना तथा सज्जन पुरुषों की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है।