________________
नीति वाक्यामृतम्
मानता वह स्वयं लोभ से अपने हो गुणों का नाश करता है । अतः लोभ को ही कृश करना चाहिए । लोभ भयंकर M अग्नि है :निःशेषधर्मवनदाह
विजन्ममाओ, दुःखौघभस्मनि विसर्पदधर्म मे । वाढं धनेन्धनसमागम दीप्यमाने,
लोभानले शलभतां लभते गुणोघः ।।1।। अर्थ :- समस्त धर्म रूपी वन को जलाने से जो वृद्धिंगत हो रहा है, दुःख समूह रूपी भस्म से व्याप्त है, !! जिसका अधर्म रूपी धुंआ दूर-दूर तक फैल रहा है और जो धन रुपी ईंधन को पाने की लालसा से प्रज्वलित हो रही है, ऐसी लोभ रूपी आग में गुणों का समूह पतङ्ग की दशा को प्राप्त हो रहा है । इस प्रकार लोभ की कुटिलता को ज्ञात कर विनीत पुरुषों को उसका त्यागकर आत्मा को पावन बनाना चाहिए । सन्तोष धारण करना चाहिए 15॥ अब मान का लक्षण करते हैं
दुरभिनिवेशामोक्षो यथोक्ताग्रहणं वा मानः ॥15॥ अन्वयार्थ :- (दुरभिनिवेश) शिष्टाचार विरुद्ध प्रवृत्तियों में दुराग्रह, (अमोक्ष:) नहीं त्यागना (वा) अथवा (यथोक्तं) यथार्थ-आगम कथित बात को (अग्रहणम्) ग्रहण नहीं करना, स्वीकार नहीं करना (मान:) मानकषाय (अस्ति) है ।
मिथ्या धारणा को त्याग नहीं करना और आगमोक्त पद्धति को स्वाकार नहीं करना मान कषाय है ।
विशेषार्थ :- आचार्य कहते हैं "मानेनभव वर्द्धनम्" मान कषाय संसार रूपी वल्लरी के सिंचन को मधुर सलिल है। मानी का जग शत्रु हो जाता है । अपने भी पराये हो जाते हैं. । यशोपताका के साथ उसका नाम, धाम और काम नष्ट हो जाता है । रावण इसका उदाहरण है । व्यास ने भी कहा है -
पाप कृत्यापरित्यागो युक्तोक्तपरिवर्जनम् ।
यत्तन्मानाभिधानं स्याद्यथा दुर्योधनस्य च ।।1॥ अथ :- पाप कार्यों को न छोड़ना और कही हुयी योग्य बात को नहीं मानना उसे मान कहते हैं । जिस प्रकार दुर्योधन का मान प्रसिद्ध है अर्थात उसने पाण्डवों का न्याय प्राप्त राज्य न देकर महात्मा कृष्ण और विदर आदि महापुरुषों की आज्ञा-वार्ता को नहीं माना । उनके कथन की उपेक्षा की यह मान कषाय का परिणाम है.। मानी जगत् में निंद्य हो जाता है । उसके गुण धूमिल हो जाते हैं । परलोक में दुर्गति का पात्र होता है । यथा -
जिह्वा सहस्त्र कलितोऽपि समासही: यस्यां न दुःखमुपवर्णयितुं समर्थः ।