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| नीति वाक्यामृतम्
। इन्द्रियों को वश करने का उपाय
__ "इष्टेऽर्थेऽनासक्तिर्विरुद्ध चाप्रवृत्तिरिन्द्रियजयः ।।8॥" अन्वयार्थ :- (इष्टे) इच्छित (अर्थे) पदार्थ में (अनासक्ति) विरक्ति (च) ओर (विरुद्ध) अनिष्ट पदार्थ में (अप्रवृत्ति) प्रवृत्ति नहीं करना (इन्द्रिय) इन्द्रिय (जयः) जय होती (अस्ति) है ।
इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना इन्द्रिय जय है ।
विशेषार्थ :- कमनीय वनिता, माला, सुगन्धित इत्रादि इष्ट पदार्थ कहलाते हैं, शिष्टाचार और प्रकृति विरुद्ध पदार्थ प्रतिकूल कहे जाते हैं, यह सामान्य कथन है । विशेष रूप से जो जिसे चाहता है वही उसे इष्ट है और जिसे प्रिय न समझे वह उसे अनिष्ट है । कहा भी है -
दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा शिताऽपि मधुरैव ।
तस्य तदैव मधुरं यस्य मनो यन्त्र संलनम् ।। संसार में दही, शहद, अगूर, चीनी आदि अनेक पदार्थ मधुर होते हैं किन्तु ये सभी सबको समान रूप से मधुर प्रतीत नहीं होते । जिसे जो रुचिकर है उसका मन उसे ही स्वादिष्ट मानता है । परन्तु विवेकी पुरुष समदृष्टि होकर यथार्थ तत्त्व विचार कर राग-द्वेष का परिहार करता है । जिस क्षण वस्तु स्वभाव अवगत होता है तो तथ्य सामने आता है और इन्द्रियों की वेलगाम-धुड-दौड़ बन्द हो जाती है । मन संयत हो जाता है ।
यद्यपि इष्ट-योग्य पदार्थों का सेवन बुरा नहीं है, परन्तु आसक्तिपूर्वक उनका अतिरेकता से सेवन करना बुरा है । मिष्ठान भोजन करना अनुचित नहीं है परन्तु मात्रा से अधिक खाना अजीर्ण का कारण है दुःखद है । रोग वर्द्धक है । अतः प्रिय पदार्थों में आसक्त न होना और प्रकृति एवं ऋतु विरुद्ध या शिष्टाचार, लोकाचार विरुद्ध पदार्थ के सेवन में लुब्ध नहीं होना चाहिए । यही इन्द्रिय जय है । मन वश होने पर शेष इन्द्रियाँ नियन्त्रित हो ही जाती हैं । सर्वत्र मर्यादा अनिवार्य है । बेमर्याद सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं "नाजीणं मिष्ठान्नान्ननु तन्मात्रा लंघनात् ।" अजीर्ण का कारण मिष्ठ भोजन नहीं अपितु असीम भोजन है । भृगु विद्वान कहते हैं -
अनुगन्तुं सतां वर्त्म कृत्स्नं यदि न शक्यते ।
स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं येन स्यात् स्व विनिर्जयः ॥1॥ अर्थ :- यदि मानव शिष्ट पुरुषों का मार्ग ग्राह्य न कर सके तो उसे थोड़ा-थोड़ा अनुकरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे वह अवश्य जितेन्द्रिय बनने में समर्थ हो जायेगा । इन्द्रिय जय का अन्य उपाए
"अर्थशास्वाध्ययनं वा ॥१॥" अन्वयार्थ :- (वा) अथवा (अर्थशास्त्र अध्ययन) अर्थशास्त्र का ज्ञान करना इन्द्रिय जय है । इन्द्रिय जय का साधन अर्थ विज्ञान का अध्ययन करना है । विशेषार्थ :- बराबर तुली हुयी तराजू की डंडी के समान जो न्यायपूर्वक आय-व्यय का समान खाता रखता