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नीति वाक्यामृतम्
रक्षित सम्पत्ति की ब्याजादि द्वारा वृद्धि करना यह अर्थानुबन्ध माना गया है । इस प्रकार की क्रिया से मनुष्य उत्तरकाल में सुखी रहता है । अविद्यमान धन को पाने के सम्बन्ध में नीतिकार हारीत का कहना है कि ...
असाध्यं नास्ति लोके ५ यस्यार्थ साधनं परम् ।
सामादिभिरु पायैश्च तस्मादर्थमुपार्जयेत् ।। अर्थ :- जिसके पास उत्तम साधन स्वरूप धन है उसे लोक में कुछ भी असाध्य नहीं रहता । इसलिए साम, दाम, भेद और दण्डादि उपायों से संयमपूर्वक धनार्जन करना चाहिए । प्राप्त धन की रक्षा के विषय में व्यास जी का कथन मान्य है
यथामिषं जले मत्स्यै भक्ष्यते श्वापदैर्भुवि ।
आकाशे पक्षिभिश्चैव तथाऽर्थोऽपि च मानवैः ।। अर्थ :- जिस प्रकार जल में क्षिप्त मांस खण्ड मछलियों द्वारा, भूमि पर पड़ा सिंहादि द्वारा आकाश में पक्षिरों द्वारा खा लिया जाता है उसी प्रकार संचित धन भी चोरादि मनुष्यों द्वारा हरण कर लिया जाता है । इसलिए उसकी रक्षा करनी चाहिए। धनवृद्धि के विषय में विद्वान वर्ग के विचार प्रशंसनीय हैं -
वृद्धे तु परिदातव्यः सदार्थो धनिके नच
ततः स वृद्धिमायाति तं बिना क्षयमेव च ।। अर्थ :- धनवान को उसकी वृद्धि के लिए सदा ब्याज पर लगाये रहना चाहिए । इससे वह बढ़ता रहेगा अन्यथा क्षय हो जायेगा ।
गृहस्थाश्रम में सम्पत्ति आवश्यक है, सुखी और शान्त जीवन के साथ धर्म, यश और सदाचार की प्राप्ति उचित धन से ही संभव है। संचित धन के नाश का कारण
तीर्थमर्थेनासंभावयन् मधुच्छत्रमिव सर्वात्मना विनश्यति ।4।।
अन्वयार्थ :- (य:) जो व्यक्ति (अर्थेन) धन के द्वारा (तीर्थम्) तीर्थ-पात्रों को (असंभावयन्) संतुष्ट नहीं करता हुआ रहता है (तस्य) उसका धन (मधुच्छत्रम्) मधुमक्खी के छत्ता के (इव) समान (सर्वात्मना) पूर्णरूप से (विनश्यति) नष्ट हो जाता है ।
यदि धन का उपयोग धर्म कार्यों में नहीं किया जाता तो वह मधुछत्ता के समान जड़मूल से विनष्ट हो जाता है । अत: पुण्य कार्यों का सम्पादन करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- पूर्व पर्याय में शुभ कर्म किये किन्तु मानादि कषायों से सहित होने से पापानुबन्धी पुण्य सञ्चित हुआ । इस पर्याय में उस पुण्यराशि ने धन तो उपस्थित कर दिया, परन्तु उस अशुभ डंक ने उसे टिकने नहीं दिया । अर्थात् दान, पूजा, तीर्थवन्दना, चैत्यनिर्माण, चैत्यालय निर्माण, शास्त्र प्रकाशनादि कार्यों में व्यय करने की सुबुद्धि जाग्रत