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________________ 8 इस प्रकार है: दुसमीरणेण पोयं पेरियसंतं जहा ति (चि) रं नई । सिरिदेवसेन मुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ।। इसका अभिप्राय यह है कि दुःषमकालरूपी आंधीसे पोत ( जहाज ) के समान जो नयचक्र चिरकालसे नष्ट हो गयाथा उसे देवसेन मुनिने फिरसे रचा। इससे मालूम होता है कि देवसेनके नयचक्रसे पहले कोई नयचक्र था जो नष्ट हो गया था और बहुत संभव है कि देवसेनने यह उसीका संक्षिप्त उद्धार किया हो। उपलब्ध ग्रंथोंमें नयचक्र नामके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं और माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके इस अंकमें वे तीनों ही नयचक्र प्रकाशित किये जाते हैं । १ आलापपद्धति, २ लघुनयचक्र, और ३ बृहत् नयचक्र । इनमेंसे पहला ग्रन्थ आलापपद्धति संस्कृतमें है और शेष दो प्राकृतमें। १ आलापपद्धतिके कर्ता भी देवसेन ही हैं । डा० भाण्डार रिसर्च इन्स्टिटयुटके पुस्तकालयमें इस ग्रन्थकी एक प्रति है, उसके अन्तमें प्रतिलेखकने लिखा है- " इति सुखबोधार्थमालापपद्धतिः श्रीदेवसेनविरचिता समाप्ता । इति श्रीनयचक्र सम्पूर्णम् ॥" उक्त पुस्तकालयकी * सूची में भी यह नयचक नामसे ही दर्ज है । बासोदाके भंडारकी सूचीमें भी जो बम्बईके दिगम्बर जैनमन्दिरके सरस्वती भण्डारमें मौजूद है, इसे नयचक्र संस्कृत गद्यके नामसे दर्ज * सन १८८४-८६ को रिपोर्टके ५१९ वें नम्बरका अन्य देखो।
SR No.090298
Book TitleNaychakradi Sangraha
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBansidhar Pandit
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1920
Total Pages194
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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