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वार्तिक के कर्ता अपने पाठकोंसे देवसेनसूरिके नयचक्रपर से विस्तारपूर्वक नृयों का स्वरूप जानने की सिफारिश करते । इसके सिवाय जैसा आगे चलकर बतलाया जायगा, देवसेनसूरि कुछ भी विद्यानन्द स्वामीके पीछे हैं । अतः श्लोक वार्तिक में जिस नयचक्रका उल्लेख है, वह कोई दूसरा ही नयचक्र होगा ।
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श्वेताम्बर संप्रदाय में ' मल्लवादि ' नामके एक बडे भारी तार्किक हो गये हैं । आचार्य हरिभद्रने अपने ' अनेकांत ( १ ) जयपताका ' नामक ग्रंथ में वादिमुख्य मल्ल वादिकृत ' सम्मति ( १ ) टीका' के कई अवतरण दिये हैं और श्रद्धेय मुनि जिनविजयजीने अनेकानेक प्रमाणोंसे हरिभद्रसूरिका समय ( ३ ) वि. सं० ७५७ से ९२७ तक सिद्धकिया है । अतः आचार्य मल्लवादि विक्रककी आठवीं शताब्दिके पहलेके विद्वान् हैं, यह निवय है । और विद्यानन्दस्वामी विक्रमकी ९ वीं शताब्दिमें ( ४ ) हुए हैं, यह भी प्रायः निश्चित हो चुका है ।
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उक्त मल्ल वादिका भी एक ' नयचक्र' नामका ग्रंथ है जिसका पूरा नाम द्वादशार - नयचक्र ' है । जिसतरह चक्रमें आरे होते हैं, उसी तरह इसमें बारह आरें अर्थात्
१ अहमदाबादमें शेट मनसुखभाई भग्गूभाईके द्वारा छप चुका है । २ यह आचार्य सिद्धसेनसूरिके ' सम्मतितर्क' नामक ग्रंथ की टीका है । ३ देखो, जैन साहित्य संशोधक अंक । ४ देखो जैनहितैषी वर्ष ९ अंक ९ ।