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________________ सकेगी।...और टाँक दूंगी तुम्हारे शिरस्त्राण में यह चिन्तामणि... दिनभर बुद्ध के वाद्यों के योप गूजते है है ...युद्धका लागी और साँझ को सना कि तुम जा रहे हो सेनानी बनकर...? पर इस युद्ध के प्रयोजन में क्या तुम औचित्य देख रहे हो मेरे बीर ? निर्विवेक युद्ध क्षत्रिय का कर्तव्य नहीं, वह उसकी लज्जा है बर्बरता है। तुम असद् के पक्ष में मद के पक्ष में लड़ने चढ़ोगे?...ओह, केवल युद्ध के लिए युद्ध :...मानो कुछ काम नहीं है तो जीवित मनुष्यों के मुण्डों से ही क्षत्रिय का प्रमत्त शस्त्र खिलवाड़ करेगा!...तो पहले इस वक्ष को भी रौंदते जाओ, एक प्रहार इसे भी देते जाओ, यदि तुम्हास प्यासा वीरत्त्व, अणमात्र भी तप्ति पा सके...! "ओ मेरे गतिमान, गति का अभिमान 'मी बन्धन ही है-वह मुक्ति नहीं है; वह पीछे किसी अतीत की ध्रुव-मरीथिका से हमें बाँधे हुए है..." । और अन्तराल में कसक उठा-'तुम्हें रोकनेवाली मैं कौन होती हूँ?' कितनी ही बार तुम्हारी दुर्गम और विकट यात्राओं के वृत्त सुने, और सुनकर चुप हो गयी। कौतुक सूझा और हँसी भी आयी है, पर प्रश्न नहीं किया! पर आज तुम युद्ध में जा रहे हो और तुम्हारी गति की यह वक्रता-यह दुर्दामता मन में भय और सन्देह जगा रही है। भयानक और प्रचण्ड हो तुम! तुम्हें एक बार पहचान लेना चाहती हूँ - ओ स्वरूपमय-कि जाने कितने जन्मों का यह बिछोह है, और कहीं तुम्हें भूल न जाऊँ...सिर्फ एक बार, एक झलक... फूटती हुई ऊषा के पाद-प्रान्त में दुन्दुभियों के घोष और भी प्रमत्त हो उठे हैं। मानो प्रलयकाल की बहिया किसी पर्वत में घुसने के लिए पछाड़ें खा रही है। दूर-दूर चले जाते प्रस्थान के वायों में दुर्निवार है गति का आवाहन । शंखनादों में चण्डो की रुद्र हुंकृति, त्रिशूल-सी उठ-उठकर हृदय को हूल रही है। और उदय होते हुए सूर्य के सम्मुख स्वर्ण-रत्नों से अलंकृत धवल वैजयन्त तुरंग पर चले आ रहे हैं, कुमार पवनंजय । माँ ने अभी-अभी तिलक कर उसकी कटि पर कृपाण बाँधी है, तथा श्रीफल और आशीर्वाद देकर उन्हें युद्ध के लिए विदा किया है! वीर-सज्जा में कसे हुए योद्धा के अंग जहाँ से जरा भी खुले हैं; वहाँ से रक्ताभा फर रही है। कवच पर ने केशरिया उत्तरीय धारण किये हैं; रत्न-कारों की कान्ति को ढाँकती हुई शुभ्र फूलों की अनेक पुष्ट मालाएँ देह पर झूल रही हैं। कलशाकार और शिरस्त्राण और मकराकुलि कुण्डलों के हीरों में प्रभा की एक मरीचिका खेल रही है। युहारूद कुमार अन्तःपुर का प्रासाद-प्रांगण पार कर रहे हैं। झरोखों सं फूलों की राशियाँ बरस रही हैं। प्रांगण में दोनों ओर कतार बाँधे हुए प्रतिहारियाँ चैंवर ढोल रही हैं। सौ-सौ स्वर्ण-कलश और आरतियाँ लेकर कुल-कन्याएँ कुमार के वारने मुक्तिदूत :: 113
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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