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________________ आतुर पैरों से आकर द्वार खोला है और पाया है कि बाहर हवाएँ खिलखिता रही हैं और झाड़ हँसी कर रहे हैं। पर आज कौन हो तुम जो इस एकान्त साम्राज्य के द्वार की अगला से मनमाना खिलवाड़ कर रहे हो? पर सम्राज्ञी स्वयं तुम्हारे इस ऐश्वर्य साम्राज्य से निर्वासित हो गयी है। वह चली गयी है परे, बहुत दूर, क्योंकि तुम्हारी इस महिमा और प्रताप को झेलने के लिए वह बहुत क्षुद्र थी - बहुत असमर्थ । इसी से उसे चले जाना पड़ा - अब क्यों उसका पीछा कर रहे हो? चारों ओर पसरे चाँदनी - स्नात उद्यान में अंजना की दृष्टि दौड़ गयी। वनवदाओं और कुंजों का पुंजीभूत अन्धकार चाँदनी के उजाले में अनेक रहस्यों की अलर्के खोल रहा था। पेड़ों तले बिछे छाया-चाँदनी के रहस्य-लोक में प्रतीक्षा की एक कातर, व्यग्र दृष्टि भटक रही है। कोई आया चाहा है. आनेवाला है...! भई कृति जाती हुई दीख पड़ती--केलिगृह के झरोखों और द्वारों में होकर, क्रीड़ा पर्वत के गुल्मों में होकर, कृत्रिम सरोवरों के कमलवनों में होकर, वह चला ही जा रहा हैं। श्वेत है उसका घोड़ा भयानक वेग से वह दौड़ता हुआ झलक पड़ता है। निर्मम पीठ किये, अचल है उस पर योद्धा पर उसका शिरस्त्राण निश्चिह्न है...? एक गहरी चिन्ता से अंजना व्याकुल हो उठी।... नहीं पकड़ पा रही है वह उसे 1... विजयार्ध के कंगूरों पर झपट रहा है वह श्वेत अश्वारोही...! पर उसका शिरस्त्राण क्यों नहीं सूर्य-सा प्रभामय और दीप्त है ?... अंजना ने अनजाने ही दोनों हाथों से हृदय को दबा लिया... ओह, क्यों नहीं चल रहा है उसका वंश, कि इसे तोड़कर एक चिन्तामणि उस शिरस्त्राण में टाँक दे...! और जाने कब अंजना भीतर आकर अपने तल्प पर लेट गयी थी। तत्प की पाषाणी शीतलता से वह अपने दुखते हुए वक्ष को दबाये ही जा रही है। मानो इसकी सारी स्वाभाविक शीतलता और कठोरता को या तो वह अपने में आत्मसात कर लेगी, या आप उस पाषाण में पर्यवसित हो जाएगी! रूप...? कोई सांगोपांग स्वरूप तुम्हारा नहीं देखा है, न जानती ही हूँ। पर देखी है तुम्हारी अजेय और उन्मुक्त गतिमयता, मानसरोवर की उन विरुद्धगामिनी लहरों पर लौटकर जिसने नहीं देखा, वह पुरुषार्थ ! उस सतत प्रवहमान को पाकर मुकर गयी हूँ रूप को कि उस सौन्दर्य और तेज को काल के हाथों क्षत होते नहीं देखूँगी। आज भी देख रही हूँ कि तुम गतिमय हो ।... आ नहीं रहे हो, तुम तो चले ही जा रहे हो। वाईस वर्ष तक तुम्हारी उपेक्षा को पीट को संहन किया है, सो इसी के बल पर अनेक नव-नवीन मनमाने रूपों और भंगिमाओं में तुम्हें अपने अन्तर में देखा है, पर वह एक और स्थिर कोई विशिष्ट रूप तुम्हारा नहीं जानती हूँ ।... आज मन नहीं मान रहा है।... एक बार तुम्हारी गति की बाधा बनकर, तुम्हारे अश्व की नाप को इस वक्ष पर झेलना चाहती हूँ और जब अटक जाओगे, तभी उझककर एक बार वह रूप देख लूँगी...! फिर उसकी मिथ्या वाधा मेरे साथ छल नहीं खेल 102 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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