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________________ पड़ी रहेगी। हथेलियों से भुजाएँ ठपकारकर कुमार ने फड़कन अनुभव करनी चाही, पर पाया कि शून्य है; स्वाभाविक प्रस्फूर्ति की कम्पन और फड़कन वहाँ नहीं हैं। एक आत्मनाश का हिल्लोल है, जो मथ रहा है. कुछ टूटना चाहता है, नष्ट होना चाहता है।...उन्नत वक्ष पर योद्धा का हाथ गया; हृदय में दीप्त, ज्वलन्त उल्लाल नहीं हैं। है एक हल, एक पके हुए फोड़े की पोड़ा। एक आसुरी उत्साह से, उद्वेग से, कुमार भर आये...ओह, दुःसह है यह, जाना ही होगा... "कौन है...?" पुकारा कुमार ने। द्वारों से दो-चार प्रतिहारियाँ आकर नत हो गयीं। "तुरंग वैजयन्त को युद्ध-सज्जा से सजाकर तुरत प्रस्तुत करो!" आज्ञा पाकर प्रतिहारियाँ दौड़ गयीं। आयुध-शाला में जाकर योद्धा ने कवच और शस्त्रों से अपना सिंगार किया। और सन्ध्या की मन्द पड़ती धूप में दर पर दीखा-वैजयन्त तुरंग पर शस्त्र सज्जित कुमार उड़े जा रहे थे। पिंगल-कोपल किरणों से शिरस्त्राण के हीरों में स्फुलिंग उट रहे थे। दिनभर महाराज अपने मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा-गृह में बन्द थे। युद्ध-संचालन पर गम्भीर और अति गुप्तं परामर्श चल रहा था। पवनंजय घोड़े से उतरकर ज्यों ही द्वार की ओर बढ़े, सेवक राजाज्ञा की बाधा उनके सम्मुख न रख सके। द्वार खुल गये। अगले ही क्षण कुमार महाराज के सम्मुख थे। देखकर राजा और मन्त्रीगण आश्चर्य से स्तब्ध, मुग्ध और निवाक हो रहे । एक पैर सिंहासन की सीढ़ी पर रखकर पवनंजय ने पिता के चरणों में अभिवादन किया, फिर कर-बद्ध आवेदन किया-- ___ "आज्ञा दीजिए देव, रणांगण में जाने को सेवा में उपस्थित हूँ। पवनंजय इस बुद्ध में सैन्य का संचालन करेगा। अपने पुत्र के मजयत का निरादर न हो देव, उसके पुरुषार्थ की लोक में अवमानना न हो, यह ध्यान रहे । उसे अवसर दीजिए कि वह अपने को आपका कुलावतंस सिद्ध कर सके, अपने क्षात्र-तेज पर वह समस्त जम्बूद्वीप के नरेन्द्र-मण्डल का शौर्य परख सके! मेरे होते और आप रणांगण में जाएँ? वीरत्व के भाल पर कालिख लग जाएगी। वंश का गौरव भू-लुण्ठित हो जाएगा। आज्ञा दीजिए देव, इसमें दुविधा नहीं होगी..." ___ "साधु, साध, साधु!" कहकर वृद्ध मन्त्रियों ने गम्भीर सिर हिला दिये। भीतर-भीतर गूंज उठा-"देव पवनंजय का वचन टलता नहीं है।" महाराज की आँखों में हर्ष के आँसू छलक आये। स्नेह के अनुरोध में, सँधे कण्ठ की अस्फुटित वाणी रुक न सकी__ "तुम्हारा अभी कुमार-काल हैं बेटा और फिर तुम..." बीच ही में पवनंजय बोल उठे. 101 :: मुकिगदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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