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________________ जा सकता। प्रगति के शूल-पथ पर यक्ष का रक्त टपकाना होगा, उनी से आलिचित कर उसे पुष्पित करना होगा... ...हाँ, उसने दिग्विजयी भ्रमण किया है। समस्त जम्बूद्वीप को पृथ्वी उसने लाँधी है। गंगा और सिन्धु के प्रवाहों पर उसने उन्मुक्त सन्तरण किया है। लवणोदधि के प्रचण्ड मगरमच्छों को वश करते हुए उसकी उत्ताल तरंगों पर उसने आरोहण किया है। सूर्य - द्वीप में कौस्तुभ पर्वत की चूड़ा पर खड़े होकर उसने वलयाकार जम्बू-वृक्षों की श्रेणियों से मण्डित जम्बूद्वीप को प्रणाम किया है! पर मन की विकलता बढ़ती ही गयी है, वह और भी सघन और तीव्रतर होती गयी है। मानो मिट जाने की एक अनिवार और दुर्गाम लालसा प्राप्यों को अहर्निश बींध रही है। कौस्तुभ पर्वत के शिखर पर जब यह खड़ा था, तो एकबारगी ही उसके जी में आया कि एक छलाँग भरकर वह कूद पड़े और लवणोदधि की उन फेनोच्छ्रयसित, भुजंगाकार लहरों का आलिंगन कर ले !...उद्भ्रान्त दिङ्मूद्र-सा वह शून्य में हाथ पसारकर जड़ हो रहा। नहीं, उसे चाहिए प्रतिरोध, संघर्ष, विरोध... । पर्वत, नदी, समुद्र, पृथ्वी और यह महाशून्य, कोई भी तो वह प्रतिरोध नहीं दे सका, जिससे टकराकर, संघर्षित होकर हृदय की यह दुर्दम्य पीड़ा शान्त हो लेती। प्रगति का मार्ग संघर्ष में होकर है, विरोध में होकर है। अवरोध से टकराकर ही प्रक्रिया की वह चिनगारी, मर्म की इस चिर पीड़ा में से फूट निकलेगी।... इस अन्ध पीड़ा को निर्गति देनी होगी उसी में छिपा है विकास का रहस्य |... उसे चाहिए आज कुछ ठोस, मांसल, जीवित प्रतिरोध - विरोध, जहाँ वह अपने इस उद्वेग को मुक्ति देकर, प्रगति का उल्लास बनाएगा 1 ... और यह युद्ध सम्मुख है...। आज आया है वह भैरव निमन्त्रण ....- हाँ, पाशव का भैरव निमन्त्रण । उसी को कुचलकर मानवत्व स्थापित और सिद्ध हो सकेगा ।... युद्ध... हिंसा... रक्तपात, निष्काम और निर्मम रक्तपात... केवल नग्न शक्तियों का लौह घर्षण ?...माना कि अहिंसा है, पर क्या वह फूलों का पथ है? मौत के मुँह में, दुर्दान्त हिंसा की दाद में, असिधारा के पानी पर उस अहिंसा को सिद्ध होना पड़ेगा । शस्त्रों की धारों को कुण्ठित कर अहिंसा को अपनी अमोघता का परिचय देना होगा, अपनी सूक्ष्म आत्म-वैधकता को प्रमाणित करना होगा ।...तब शस्त्र की सीमा जान लेना ज़रूरी है। प्राण ले सकने और दे सकने की अपनी सामर्थ्य का स्वामी हमें पहले हो जाना है। तब हमें जीवन के मूल्य की ठीक-ठीक प्रतीति हो सकेगी, और तभी हम उसके चरम-रक्षक भी हो सकेंगे। तब होगी अहिंसा की प्रतिष्ठा, और तब शस्त्रों के फल हमारी देह में से पानी की तरह लहराकर कतराकर निकल जाएँगे ! ... कर्मचक्र को तोड़ने के पहले बाह्य शक्तियों के विरोधी दुश्चक्र को तोड़ना होगा। क्षत्रिय की बाहु बहुत दिनों से अकर्मण्य पड़ी है, अब और भूलुण्ठित यह नहीं मुक्तिदूत ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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