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________________ अनेक कुटों और सरोवरों के तोरण पार करती, अनेक भू-प्रदेशों को सौन्दर्य-दान करती, विजयाधं के रजत-प्रदेश में आकर ज़रा संकुचित होती हुई, विजया के गुफा-द्वार में वह भुजमिनी-सी प्रवेश कर गयी है। रूपाचल की गुफा के वज्र-द्वार में प्रवेश करते समय, वह आट योजन विस्तार पा जाती है। और देख रहे हो, वे गंगा और सिन्धु नदियों जहाँ जाकर लवणोदधि-समद्र में मिली हैं, उनके वे रन-तोरण और वे तट-बेदियाँ दीख रही हैं। भरत-क्षेत्र और जम्बूद्वीप के सभी भू-प्रदेशों को प्रणाम करते हुए, उन तोरणों तक पहुँच जाना है। और फिर हैं, लवण-समुद्र की वे उत्ताल लहरें। उसमें कौस्तुभ-पर्वत को धारण किये हुए वह सूर्य-द्वीप है, और उससे भी परे चलकर ये मागध, वरतनु और प्रभासद्वीप हैं। देख रहे हो न प्रहस्त!" "हाँ, जो वह तो नैसर्गिक है, पर वह है इसीलिए गम्य है और तुम्हारी तृप्ति का मार्ग उसी में होकर है, यही नहीं समझ पाया हूँ!...पर पवन, देख रहे हो वह उत्तर भरत-क्षेत्र के बहुमध्य भाग में वृषम-गिरि पर्वत खड़ा है, जहाँ आकर चक्रवर्ती का मान भी भंग हो जाया करता है। षट् खण्ड-विजय के उपरान्त, नियोग के अनुसार, जब चक्रवर्ती सषभ-मिनि पचत की शिताना अपनी शिकाय के चिह्न-स्वरूप अपने हस्ताक्षर करने आता है, तो पाता है कि उस शिला पर नाम लिखने की जगह नहीं है! उससे पहले ऐसे असंख्य चक्रवर्ती इस पृथ्वी पर हो गये हैं और वे सभी उस शिला पर हस्ताक्षर कर गये हैं। तब यह नया चक्री भी अपने से पहले के किसी विजेता का नाम मिटाकर यहाँ अपने हस्ताक्षर कर देता है; और यों अपनी विजय के बजाय अपने मान की पराजय की ही हस्तलिपि लिखकर वह चुपचाप यहाँ से लौट आता है।...पर, खैर, वह तो तुम जानो।...लेकिन तुम्हारा मार्ग मेरी कल्पना की पकड़ में नहीं आ रहा है। हौं, तो महादेवी को जाकर मुझे क्या यही सब कहना है, पवन?" "हाँ, प्रहस्त! यदि मेरी वेदना को तुम इनकार नहीं करते हो-और मेरे सखा हो, तो मेरे मन की इस कथा को माँ तक पहुँचा देना, और कहने को कुछ शेष नहीं है..." कहकर तुरन्त पवनंजय, बिना कुछ कहे चुपचाप वहाँ से चल दिये। प्रहस्त मे वे चित्रपट समेटे और प्लान-मुख अपने रथ पर आकर बैठ गया! रास्ते में वह सोच-सोचकर हार गया कि हाय, क्या कहकर वह माँ के हृदय को परितोष दे सकेगा! 18 एक वर्ष बाद... विजयाध के पार्वत्य प्रवेश-तोरण पर युद्ध-प्रस्थान के दुन्दुमि-घोष गूंज रहे हैं। मुक्तिदूत :: 97
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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