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________________ मानचित्रों के ऊपर फैलाकर टाँग दिये। अनायास एक कटाक्ष से पवनंजय ने देख लिया, फिर आँखें तूली की गति में लीन हो गयीं। अपने बावजूद वे मुसकरा उठे। प्रहस्त ने मुँह मलकाकर धीरे से कहा __ "लोक की इस विराट् रचना के बीच अब तुम्हें हृदय स्थापित करना है, पवन। इस सबके स्रष्टा और द्रष्टा को केन्द्र में अपना झरोखा बाँधना है। चनी...! जीवन के इन प्रवाहा रूप-रंगों को धारा में अपनी तूलिका इबा दो, और उस केन्द्र का अंकन कर दो!" पवनंजय की वे तल्लीन आँखें उठ न सकीं। उसी तन्मयता में इंषत् भ्रू उचकाकर वे बोले "स्रष्टा और द्रष्टा इस रचना में कहीं नहीं है, जो किसी विशिष्ट बिन्दु पर वह अपने को स्थापित करे? और अपने को उद्घोषित करने का यह आग्रह ही क्या अपनी असामर्थ्य और सीमा का प्रमाण नहीं है? पर अपने सन्तोष के लिए तुम चाहो तो देखो प्रहस्त, वह दक्षिण विजया की सर्वोच्च श्रेणी पर हैं-अजितंजय फट! वह प्रासाद नहीं है प्रहस्त, और न ही वह वातायन है। वह कूट है, चारों ओर से खुला, अरक्षित, प्रकृतः आकाश की अनन्त नीलिमा उसके पादमूल में लहरों-सी आकर टकरा रही है। वही है द्रष्टा के ध्रुषासन का प्रतीक!" प्रहस्त ने देखा कि फिर विवाद की भूमिका सम्मुख है। नहीं, अपनी बुद्धि पर आज वह धार नहीं आने देगा। वह तर्क नहीं करेगा। और हृदय...? नहीं, उसकी कंजी उसके पास नहीं हैं। उसे कर्तव्य का सहारा है और वह उससं बंधा भी है। जो भी इस व्यावहारिकता में वह औचित्य नहीं देखता, फिर भी बात को ठोस भूमि पर लाकर ही निस्तार है। पर कितना ज्वलन्त और येधक है वह यथार्थ । अपने बावजूद प्रहस्त के हृदय का उभाड़ फूट ही तो पड़ा __ "भैया पवन, अब और हमारे हृदयों को मत कुचलो, अब और अपने आपको यों मत रौंदो।...नहीं, यह बर्बर व्यापार अब मैं नहीं चलने दूंगा। अपने ऊपर और किसी पर तुम्हें करुणा नहीं हुई, पर अपनी माँ के हृदय को अपने इस मूक अत्याचार से अब मत बींधो। वह दृश्य बहुत ही त्रासदायक और असह्य हो गया है। और भैया, जीवन में एकान्त निश्चय-नय की दृष्टि लेकर ही हम नहीं चल सकते। वह निश्चयाभास हो जाएगा। तब तत्त्व के यथार्थ स्वभाव की ओट में अपनी दुर्बलताओं को प्रश्रय देने लगेंगे। वह फिर एक आत्मघातक छय-व्यापार हो जाएगा। जीवन के तात्त्विक यथार्थ को व्यवहार के सापेक्ष अथों में देखना होगा और प्रसंग के अनुसार अपना देय देकर जीवन की धारा को अविच्छिन्न रखना होगा।" पवनंजय की काम में लगी आँखें और भी विस्फारित हो गयी हैं। उनके होठों की मुसकराहट और भी फैलकर अपने विस्तार में प्रहस्त के कहे को शून्यवत कर देना चाहती हैं। वे बोले कुछ नहीं, अविचलित अपने काम में संलग्न रहे। प्रहस्त 14 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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