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________________ जो भी पवनंजय ने साफ़ घोषित करके, प्रहस्त से अपने आपको छीन लिया था, फिर भी क्या प्रहस्त रुष्ट हो सका हैं? क्या उसका हृदय कण्ठित रह सका है:-पवनंजय के इनकार को होलकर भी वह उसे अस्वीकार न कर सका है। उसने अपने आप ही समझौता करके जामिफाल ली f: निम : यूक: कि दो-चार दिन में बराबर वह यहाँ आ ही जाता है, परनंजय हों या न हो। यदि मिले तो कैंफ़ियत नहीं तलब करता, न अपनो हित-चिन्तना की घोषणा ही किया चाहता है। यदि हो सके तो पबन का सेवक होकर, उसके छोटे-मोटे कामों का सहयोगी सो जाना चाहता है। प्रासाद के नवम खण्ड के कसों में जहाँ लोकों की रचनाएँ हैं, वहीं इन दिनों पवनंजय अपने सपनों की रूप-रंग देने में व्यस्त रहते हैं। वहाँ पहुँचकर प्रहस्त चुपचाप उनके काम की गतिविधि को समझ लेता है। अपने लायक कोई काम चुनकर मौन-मौन उसमें जुट जाता है। कभी उसे पता लगता कि आज पवनंजय छत के किसी मेरु-कक्ष में बन्द हैं तो वह कभी ऊपर जाने की चेष्टा न करता। बाहर में ही लौटकर धुपचाप चला जाता। यदि उसके सामने ही पवनंजय कभी बाहर से लौटते और वह प्रतीक्षा में होता, तो वह यह कभी न पूछता कि 'कहाँ से आ रहे हो?' पवनंजय कोई गम्भीर तत्त्व की बात कहते, तो वह मुसकराकर, उसे सहज स्वीकार कर चुप हो रहता! उसे बात-बात में एक दिन पवनंजय से यह भी पता लगा था कि विजयार्ध की मेखता में कई विद्याधर नगरियों के राजकुमारों से उसकी मित्रता हो गयी है। उनले उसे कुछ दुर्लभ विद्याएँ भी प्राप्त हुई हैं। और कभी-कभी एक प्रसन्न आत्मतुष्टि का कटाक्ष करके वह आवेश में कहता-."याद है न प्रहस्त, मैंने उस दिन मानसरोवर के तट पर तुमसे कहा था कि वह दिन दूर नहीं हैं जब नागकन्याओं और गन्धर्व-कन्याओं का लावण्य पवनंजय की चरण-धूलि बनने को तरस जाएगा! ...उस दिन के स्वागत के लिए तैयार हो जाओ, प्रहस्त । अब उसी यात्रा के लिए महाप्रस्थान होनेवाला है।' और आज प्रहस्त जव पवनंजय से मिलने जा रहा है तो एक राज-कर्तव्य लेकर जा रहा है। जम्बूद्धीप के राज-घरानों में यह बात अब छपी नहीं थी कि आदित्यपुर के युवराज पवनंजय ने, परिणय के ठीक बाद ही नवपरिणीता युवराज्ञी अंजना का त्याग कर दिया था। कुछ दिनों प्रतीक्षा रही, पर देखा कि कुमार का मन फिरा नहीं है। तब अनेक दूर देशों और द्वीपान्तरों में विवाह के सन्देशे और मेंटें लेकर राजदत आदित्यपुर में आने लगे। आये दिन आतिथ्यशाला में एक-दो राजदूत इस प्रयोजन के अतिथि अवश्य पाये जाते । लम्बे अन्तरालों से जब कभी पवनंजय माता-पिता के चरण छूने या उनसे मिलने आते, तो राजा और रानी ने अकेले में और मिलकर, पवन के हदय को पकड़ने के हर प्रयत्न कर देखें हैं। पर वे सफल नहीं हो सके हैं। या 1/2 :: गुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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