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________________ हाँ, वह जब भी पवनंजय से मिलने आया है, उसका मन सहवेदन से बोझिल रहा है। वह हृदय का द्वार खोलकर पवनंजय के सम्मुख जाता कि अवसर पाए तो उसे अपने भीतर ले लें। पर पचनंजय के सामने पहुँचते ही उनकी तनी हुई गर्विणी भौंहों पर जाकर सदा उसकी सहवेदना बिखर गयी है। उसके मनसूबे चूर-चूर होकर कार्य हो गये हैं। उसके द्वार को जैसे कोई अवहेलना की ठोकर से बन्द कर देता |... और वह देखता कि देव पवनंजय बोल रहे हैं। ज्ञान की प्रत्यंचा चढ़ी हुई है। हृदय मानो पैरों तले दवा हैं, और शून्य में सनसनाकर शब्दों के तीर व्यर्थ हो रहे हैं। उनकी वाणी में बुद्धि का गौरव है। ये तत्त्व की भाषा में जीवन का विश्लेषण कर उसे फेंक दे रहे हैं। इनकार उनका जीवन-सूत्र है। पर को इनकार उन्होंने इसीलिए किया है, क्योंकि उन्होंने अपने को ही इनकार कर दिया है। तब उनके निकट जीवन मात्र वस्तु है । व्यक्ति कुछ नहीं है, उसकी आत्म चेतना कुछ नहीं है, उसकी आत्म-वेदना मिथ्या है। प्रहस्त ने सदा उनके सम्मुख साधारण मानव होकर अपने को रखना चाहा । अपनी वेदना और करुणा के स्वर को दबाया नहीं। पर उस वेदना और मानवता को सदा कुण्ठित हो जाना पड़ा है। तब उसे अपने दायित्व का भी भान आया है। ... उसी ने एक दिन किशोर पवन के सपनों और मन के कवित्व में, एक भव्य तत्त्वज्ञान की प्रतिष्ठा की थी। उसी ने पवन की अपार सौन्दर्य- जिज्ञासा की ऊर्ध्व दृष्टि को एक प्रबुद्ध दर्शन का तुंग वातायन प्रदान किया था। उसने देखा कि उस वातायन पर चढ़कर पवनंजय अपने अई-दुर्ग में बन्दी हो गया । वह जीवन के साथ चौसर खेल गया। उसने आत्मा की अवमानना की। तब वह बोला इनकार और तिरस्कार की गर्विणी वाणी । प्रहस्त सदा वेदना लेकर गया और विवाद लेकर लौटा है। लौटते हुए सदा उसे अपने ऊपर रोष आया है और आत्मग्लानि हुई है। पवन के लिए मानो वह दया से आई और कातर हो उठता है। क्यों उसने उसे यों जाकर अघात पहुँचाया है ? उसकी विषम बेदना पर क्यों उसने व्यंग्य किया है? पर क्या इसमें उसी का दोष है? जहाँ बुद्धि ही के शस्त्रों पर जीवन को परखा जा रहा हो, वहाँ व्यंग्य के सिवा और क्या निपजेगा? इसी से जब अपने दायित्व से प्रेरित होकर पवन के भटके हुए दर्शन को सही मार्ग निर्देश करने की चेष्टा उसमें होती है, तब उसके पीछे हृदय का सारा सद्भाव रहते हुए भी, वह व्यंग्य से कठिन और प्रखर हो गयी है । पर पवनंजय तो जैसे चोट को निमन्त्रण देता-सा ही मिलता है; मानो उसे प्रेम भी यदि किया जा सकता है तो चोट देकर ही...! पर प्रहस्त को हार अपनी ही दीख रही है । उसे बार-बार यही बात खाती रही है कि पवन के प्रति अपना देव वह नहीं दे पाया है। यह उसी की असामर्थ्य हैं कि वह पवन को अपने विश्वास की छाया में न ले सका है। मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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