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________________ एक-एक कक्ष में घूम जाते हैं। वहाँ के चुंधिया देनेवाले चित्र-विचित्र सिंगारों, परिग्रहों और वस्तु पंजों को मायाविनी विविधता में अपने को उलझाये रखना चाहते हैं। पर चित्त का उड़ेग बढ़ता ही जाता है। दूर से एक मरीचिका पूर्ण आवेग से खींचती है। पास जाते ही यह सब फ्रीका पड़ जाता हैं- नीरस, निस्पन्द, अगतिशील, जड़ नौवें खण्ड के कक्षों में अनेक लोकों, पृथ्वियों, समुद्रों और पर्वतों की रचनाएँ हैं। वे मानचित्रों की परिमाण सूचकता के साथ तैयार की गयी हैं। उन्हें देखकर फिर वे एक नवीन ताजगी, उत्साह और उत्कण्ठा से भर आते हैं। वे अपनी महायात्रा की योजनाएँ बनाने में संलग्न हो जाते हैं। वर्षों के प्रसार में वह योजना बढ़ती जाती हैं, योजना की संख्या लुप्त होने लगती है। उनका नक्शा बनते-बनते उलझ जाता है रेखाओं के जाल - संकुल हो उठते हैं। यात्रा का पथ अवरुद्ध हो जाता है। विफलता के शुन्य काले धब्बों से उनकी आँखों में तैरने लगते हैं। ये नक्शों को फाड़कर फेंक देते हैं, जितने बारीक़ टुकड़े वे कर सकें करते ही जाते हैं और फिर उन्हें दृष्टि से परे कर देना चाहते हैं । -akk r I फिर एक नया आवेग नस-नस में लहरा जाता है। तब वे महल के गर्भ-देश में बनी अपनी आयुध-शाला में जा पहुँचते हैं। ताँबे के विशाल नीरांजन में एक ऊँची जीत का दीप वहाँ अखण्ड जलता रहता है। कुमार पहुँचकर अलग-अलग आलयों के सभी दोषों को सैंजो देते हैं। शस्त्रास्त्रों की चमक से आयुध-शाला जगमगा उठती है । परम्परा से चली आयी आदित्यपुर की अलभ्य और महामूल्य आयुध-सम्पत्ति यहाँ संचित है। फिर कुमार ने भी उसे बढ़ाने में बहुत प्रयत्न और धन खर्च किया है अचिन्त्य और अकल्पित शस्त्रास्त्र यहाँ संगृहीत हैं। आयुधों के फल दर्पणों-से चमकते हैं; उनमें अपने सौ-सौ प्रतिबिम्ब एक साथ देखकर कुमार रोष और विरक्ति से तिक्त और क्षुब्ध हो उठते हैं। वहाँ शस्त्रों को धार देने के लिए बड़ी-बड़ी शिलाएँ और चक्र पड़े हुए हैं। अपने अनजान में ही अपने ठीक सामने के शस्त्र की चमक को बुझा देने के लिए, ये उसे सान पर चढ़ा देते हैं। उसमें से चिनगारियाँ फूट निकलती हैं। कुमार के भीतर की अग्नि दहक उठती है। वाह नंगी होकर सामने आना चाहती हैं। शिलाएँ कसक उठती हैं. देखते-देखते ये हिलने लगती हैं, जैसे भूकम्प के हिलोरे आ रहे हो। सान के सारे चक्र कुमार की आँखों में एक साथ पूर्ण वेग से घूमने लगते हैं - उन सबमें चिनगारियाँ फूटने लगती हैं। वे सान पर से शस्त्र को हटा लेते हैं। उसकी चमक ओर भी पारदर्शी हो उठती है। उसमें कुमार के प्रतिबिम्य कई गुने हो उठते हैं। वे झल्लाकर शस्त्र फेंक देते हैं। सारी आयुध-शाला झनझना उठती है । ऊपर प्रतिहारियों के प्राण सूख जाते हैं। आयुध - शाला के शस्त्रागारों पर लगी सिन्दूर विकराल रुद्र हास्य से पृक अट्टहास कर उठती है ! कुमार झपटकर शंखों के आलय की ओर चले जाते हैं। अद्भुत हैं वे शंख ! भिन्न-भिन्न दिशाओं के स्वामियों को ललकारने और चुनौती देने की भिन्न-भिन्न मुक्तिदृत: 69
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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