SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसन्त ने देखा -- दीप के मन्द आलोक में प्रभु के मुख पर वही त्रिलोकमोहिनी मुसकान खिली है - मानो जीवन का उन्मुक्त प्रवाह आँखों के आगे बह रहा है, निर्मल और अबाधित। उसमें बहने को सभी स्वतन्त्र हैं - वहाँ मर्यादाएं नहीं हैं, शर्तें नहीं हैं, अन्तराय नहीं है, योनि-भेद नहीं है, विधि-निषेध नहीं हैं: - है केवल आत्मा के अकलुष प्रेम की स्रोतस्विनी ! 12 आँधी-वर्षा की रुद्र, प्रलयंकरी रातों में पवनंजय भयभीत हो उठते। बाहर के सारे भर्यो पर वे पैर देकर चले हैं, पर यह आत्म-भीति सर्वथा अजेय हो पड़ी है। इन बिजलियों की प्रत्यंचाओं पर चढ़कर जो तीर इन तूफ़ान की रातों को चीरते हुए आ रहे हैं, उनके सम्मुख कुमार का सारा ज्ञान-दर्शन, शौर्य, वीर्य और उनकी आयुधशाला के सारे शस्त्र कुण्ठित हो गये हैं। सूक्ष्म, अमोघ और अन्तर्गामी हैं ये तीर, जो मर्म कर बिंघ ही जाते हैं। उनका प्रेत ही छाया की तरह उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा है। उनके रोम-रोम एक निदारुण भय से आकुल हैं। अपने ही सामने होने का साहस उनमें नहीं है। वे अपने से ही विमुख और विरक्त हो गये हैं; पर अपने से भागकर वे जाएँ तो कहाँ जाएँ...? कई अखण्ड दिनों और रातों घोड़े की पीठ पर चलकर वे योजनों पृथ्वी रौंद आये हैं। ऐसे महा-विजनों की वे खाक छान आये हैं, जहाँ मानव-पुत्र शायद ही कभी गया हो। अलंघ्य को उन्होंने लाँधा है, और दुर्निवार को हठपूर्वक पार किया है। घोड़ा जब तीर के वेग से हवा में छलाँग भरता तो उड़ान के नशे में उनकी आँखें मुँद जातीं। उन्हें लगता कि उनका घोड़ा आकाश की नीलिमा को चीरता हुआ चल रहा है। पर आँखें खुलते ही पाया है कि वे धरती पर ही हैं। इसी तरह पराभव से कातर और म्लान वे सदा अपने महल को लौट आये हैं 1 इस महावकाश में वे कहीं भी अपने लिये स्थान नहीं खोज सके हैं। माना कि वे चिरन्तन गति के विश्वासी हैं, ठहरना वे नहीं चाहते; स्थिति पर उन्हें विश्वास नहीं है। पर वर्षा की इन दुर्दान रात्रियों में क्यों वे इतने अरक्षित और अशरण हो पड़ते हैं? ऐसे समय अवस्थिति और प्रश्रय की पुकार ही क्या उनमें तीव्रतम नहीं होती है? वे अपने को पाना चाहते हैं। पर अपने ही आपसे छलकर वे अपने से ही आँखमिचौली जो खेल रहे हैं। अपनी ही पकड़ाई में वे नहीं आना चाहते। अपनी दिन-दिन गहरी होती आत्म-व्यथा को वे अनदेखी कर रहे हैं। फिर अपने को पाएँ तो कैसे पाएँ? समय-असमय जब-जब भी ऐसी बेचैनी हो जाती है, वे महल के नवीं खण्डों के 68 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy