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________________ के रस भरे रख है; पर उन अगन लेप नही स्वीकारा। सुमांय अता और रसों की झारियाँ मुँह ताकती रह गयीं। रत्नमाला ने कल घुमा दी; पन्ने के कल्प-वृक्षों से निकलकर शीतल सुगन्धित नीहार-लोक कमरे में छा गया। अंजना के तप्तोज्ज्वल मुख पर अपार शान्ति है। गलित-स्वर्ण-सी पसीने की धारें कहीं-कहीं उस अरुणाभा में सूख रही हैं। सघन बरौनियों के भीतर धन पल्लव-प्रच्छाय किसी अतलान्त वन्य वापिका के जल-सी ये ऑरने कभी उठकर लहरा जाती हैं और फिर हुलक जाती हैं। अंजना के माथे पर हल्के से हाथ फेरती हुई वसन्त बोली___ "अंजन, तेरे हृदय के अमत तक नहीं पहुंच सका यह अभागा पुरुष! इसी से तो झैंझलाहट की एक ठोकर शुन्य में मारकर वह चला गया है।...पर नारी की देह लेकर कहते-कहते फिर बसन्त का गला भर आया; विहल होकर उसने अंजना को अपनी गोद में खींच लिया और उसका मुख वक्ष में भर मैंदी आँखों के वे बड़े-बड़े पलक चूम लिये। उस ऊष्मा में अंजना की वे सुगोल सरल ऑखें भरपूर खुलकर वसन्त को अपने अन्तर्लोक में खींच ले गयीं। __ "भूल हो गयी है जीजी, मुझी से भूल हो गयी है। मैंने अपनी आँखों से देखा था कल रात-उस इन्द्रनील शिला के फ़र्श में! छाया की उस कन्या को मैं अपने सुख-सुहाग के गर्व में पहचान न सकी। पर मैं ही अभागिनी तो थी वह ! टूटती ही गयी-टूटती ही गयी। अनन्त लहरों में चूर-चूर होकर मैं बिखर गयी। और मैंने देखा, वे आलोक के चरण आ रहे हैं। पर मैं पहुँच न सकी जीजी उन तक। देखो न वे तो चले ही आ रहे हैं, पर मैं चूर-चूर हुई जा रही हूँ। देखो न जीजी मैं अभागिन।" कहते-कहते अपने दोनों हाथ अंजना ने शुन्य में उठा दिये। और वसन्त ने देखा, उसकी आँखों से आँसू अविराम झर रहे हैं। लगा कि वह ध्वनि मानो किसी सुदूर की गम्भीर उपत्यका से आ रही थी। __ "अंजन-मेरी प्यारी अंजन! यह कैसा उन्माद हो गया हैं तुझे? मेरी अंजन..." कहते-कहते वसन्त ने अंजना के दोनों उठे हुए हाथों को बड़ी मुश्किल से समेटकर, फिर उसके चेहरे को अपने वक्ष में दाब लिया। "पर जीजी भूल मुडी से हुई है। बार-बार तुमने मन की बात कहनी चाही है-पर न कह सकी हूँ। मोह की मूर्छा में अपनी तुच्छता को भूल बैठी, इसी से यह अपराध हो गया है, जीजी! देखो न; वे चरण तो चले ही आ रहे हैं, पर मैं ही नष्ट हुई जा रही हूँ-टूटी जा रही हूँ। उन चरणों के आने तक यदि चूक ही जाऊँ तो मेरा अपराध उनसे निवेदन कर, मेरो ओर से क्षमा मांग लेना, जीजी!" भक्तिदन्न ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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