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________________ लौटे; कुमार अपने महल में नहीं थे। महाराज स्वयं पालकी पर चढ़कर गये। 'अजितंजय-प्रासाद' का एक-एक कक्ष महाराज घूम गये पर कुमार का कहीं पता नहीं था। अश्वशाला में पवनंजय का प्रियतम तुरंग 'बैंजयन्त' अपनी जगह पर नहीं था। महल के द्वार के दोनों ओर प्रतिहारियों कतार बाँधे नत खड़ी थीं। महाराज के पाछने पर सिर उठाये और भय से थरथराती हुई वै पक रह गयीं। वे रो पड़ीं और बोल न सकीं। महाराज उदास होकर लौट आये। चारों दिशाओं में सैनिक दौड़ाये गये, पर दिन इबने तक भी कोई संवाद नहीं आया। और विषाद के बादलों से ढककर जब आस-पास का सारा राज-वैभव मानो भू-लुण्ठित हो गया है, तब यह 'रत्नकूट-प्रासाद' इस सबके बीच खड़ा है-वैसा ही अचल, उन्नत, दीप्त रत्नों से जगमगाता हुआ! इसका तेज जरा भी मन्द नहीं हुआ है। दिन की चिलचिलाती धूप में बह और भी प्रखर, और भी प्रज्वलित होता गया है। कोई कान्तिमान ताग की मानो समाधिस्थ है। कठों को वीतराग मुसकराहट में एक गहन रहस्यमयी करुणा है। परिजनों की आँसू-भरी आँखें धूप में दहकते उस शिखर की ओर उठती हैं, पर ठहर नहीं पाती; दुलक जाती हैं, और आँसू सूख जाते हैं। इस प्रचलित अग्नि-मन्दिर के पास जाने का साहस किसी को नहीं हो रहा है। सारे मनों की करुणा, व्याकुलता, सहानुभूति अनेक धाराओं में उसके आस-पास चक्कर खाती हुई लुप्त हो जाती हैं। दासियाँ और प्रतिहारियाँ महल की सीढ़ियों और खण्डों में पहेलियाँ सुझाती हुई बैठी हैं–पर ऊपर जाने की हिम्मत नहीं है। छतवाले उसी शयन-कक्ष में बीच के बिल्लौरी सिंहासन की दायीं पोठिका के सहारे अंजना अधलेटी है। पास ही बैठी है उदास वसन्तः रो-रोकर चेहरा उसका म्लान हो गया है और आँखें लाल हो गयी हैं। पीछे खड़ी रत्नमाला मयूर-पंख का विपुल विजन धीरे-धीरे शल रही है। अंजना की देह पर से राग-सिंगार, आभरण मानो आप ही इपरे पड़ रहे हैं। उन्हें उतारने की चेष्टा नहीं की गयी है, वे तो निष्प्रभ होकर जैसे आप ही गिर रहे हैं। और जब वे पहनाये गये थे तब भी कब सचेष्टता के साथ सँभाले गये थे। सुषमा के उस सरोवर में वै तो आप ही तैरने लगे थे और धन्य हो गये थे। दिनभर आज खुली छत में शय्या के पास बैठ, अंजना ने सूर्यस्नान किया है। उसमें सारे रत्नाभरण और कुसुमाभरण उस देह से उठती ज्वालाओं में गलित-विगलित होते गये हैं। अब साँझ होते-होते वसन्त का वश चला है कि वह उसे उठाकर कक्ष में ले आयो है। बिल्लौरी सिंहासन पर सरोवर के जल-बिन्दुओं से आर्द्र, सधः तोड़े हुए कमल के पत्तों की शच्या बिछाकर उस पर अंजना को उत्तने लिटाना चाहा, पर वह बैठी है। पास ही माना की चौको पर पन्ने के चषकों में कपूर, मुक्ता और चन्दन It :: मुक्तिदृत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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