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________________ पुरुषार्थ है, जो रूप के इस अकूल समुद्र को पार कर, नाश की मझधारा से ऊपर उठकर, हृदय के इस अमृत को प्राप्त कर लेगा! मानसरोवर की विरुद्धगामिनी लहरों पर तैरनेवाले कुमार पवनंजय के मान की परीक्षा है आज रात... " ___ अंजना की समस्त देह पिघलकर मानो उत्सगं के पद्म पर, एक अदृश्य जलकणिका मात्र बनी रह जाना चाहती है। वसन्त के वक्ष पर सिमटकर वह गाँठ हुई जा रही है। उसने बोलती हुई वसन्त के होठों पर हथेली दाब दी. "ना...ना...ना...बस करो जीजी। मेरी क्षुद्रता को शरण दो जीजी। कहाँ है हृदय-जो उसकी बात कह रही हो। मन, प्राण, हृदय-सर्वस्व हार गयी हूँ! अपने को पकड़ पाने के सारे प्रयल विफल हो गये हैं। इसी से पूछ रही हूँ कि क्या देकर उन चरणों को पा सकुँगी? मैं तो सर्वहारा हो गयी हूँ, क्षण-क्षण मिटी जा रही हूँ, मुझ पर दया करो न, जोजी!" और तभी उस ओर के केलि-सरोवर से सखियों के चंचल हास्य का रव सुनाई पड़ा। कि इतने में ही लीला की तरंगों-सी सखियाँ इस ओर दौड़ आयीं। "उठो सनी, खेलने के लिए बालिका अंजन को जाने दो-हिण्डोले की पेंगें उसकी राह देख रही हैं!" कहकर बसन्त ने अंजना को दोनों हाथों से झकझोरकर एकदम हल्का कर देना चाहा। चारों ओर घिर आयी सखियों ने सिन्धुवार और मलिका के फूलों से अंजना का अभिषेक कर दिया । 'युवराज्ञी अंजना की जय' --मूदु कण्ठों का समवेत स्वर हया में गूंज गया । जयमाला ने एक उत्फुल्ल कुमुदों की माला अंजना के गले में डाल दो। यसन्त के हाथ के सहारे उठकर अंजना चली-धीर-गम्भीर और सम्भ्रम से भरी। चारों ओर सखियाँ और दासियाँ झक-झुककर चलइयाँ ले रही हैं। इस सारे रूप, श्रृंगार, सज्जा से ऊपर उठकर सौन्दर्य की एक मुक्त विभा-सी वह चल रही है। चाँद उस सौन्दर्य का दर्पण न बन सका-वह उसका भामण्डल बन जाने को उसके केश-पाश की लहरों पर आ खड़ा हुआ है; पर वहाँ भी जैसे ठहर नहीं पा रहा है। कलि-सरोवर के एक ओर के दलों के ऊपर होकर हिण्डोला झूल रहा है। हिण्डोले के एक कोने में बायीं पीठिका के सहारे, एक मोलिया रंग के रेशमी उपधान पर कुहनी टिकाये, गाल एक हथेली पर धरकर अंजना बैठी है। सहज संकोचवश कुछ मुड़े-से दोनों जान उसने अपने ही नीचे समेट लिये हैं। पास हो दायीं पीठिका के सहारे वसन्तमाला बैंटी है। कुछ सखियाँ हिण्डोले के आस-पास खड़ी होकर हौले-हौले झूला दे रही हैं। बड़ी ही कोपल रागिणियों से वे गीत गा रही हैं। उन रागों की मूच्छा पवन पर चढ़कर दिशाओं के तट छू आती है। बढ़ते हुए उल्लास के साथ रागों का आलाप बढ़ता ही जाता है। केलि-सरोवर के उस ओर हारथष्टि बाँधकर खड़ी सखियाँ नाना भंगों में नृत्य कर उठीं। मंजीरों की पहली ही रणकार से अन्तरिक्ष के तारों में झंकार भर गयी। मुक्तिदूत :: 5
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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