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________________ की बाल सोचते ही भय और त्रास से सहम उठता हूँ। पुरुष का युग-युग का पुरुषार्थ तेरे कष्टों के सम्मुख फीका पड़ गया है। किस बुद्धि से उसकी बात मैं सोच सकूँगा? मेरा दुर्बल हृदय टूटकर रुद्ध हो जाता है; तेरी वेदना अनुभव कर सकने जितनी चेतना मुझमें नहीं है 1- पुरुष में वह कभी भी नहीं रही है। मुझे खींच लो रानी अपनी उत्ती स्नेहिल गोद में, जिसमें उस दिन शरण देकर मुझे प्राणदान दिया था...नहीं, अब नहीं सह जातुम कहो...ोडोलो र जहाँ हो वहीं से बोलो... मुझे जरूर सुनाई पड़ेगा..." दूर-दूर से गिरिशृंगों से पुकारें लौट आतीं और एक दिन अचानक उस प्रतिध्वनि में उसने प्रिया की पुकार का कण्ठ-स्वर पहचाना। मानो यह कह रही हैं-"मैं यहाँ हूँ...मैं यहाँ हूँ... मैं तुम्हारे चारों ओर हूँ - अरे मैं कहाँ नहीं हूँ...! सुनकर वह पर्वत के सबसे ऊँचे भृंग पर जा पहुँचा। आकाश में आकुल भुजाएँ पसारकर उसने चारों ओर दृष्टि डाली। हवाओं के झकोरों में वही ममता-भरा आहान बार-बार गूँजता सुनाई पड़ने लगा। हृदय तोड़कर उसने रो उठना चाहा किं अपने रुदन में वह आस-पास की इस निःसीम प्रकृति को, धरती और आकाश को बहा देगा... | पर आँख खोलते ही पाया कि सुनील अन्तरिक्ष शिशु-सा सरल उसकी आँखों में मुसकरा रहा है और हरीतिमा का विपुल स्नेहिल आँचल पसारकर धरणी उसे बुला रही है।... पा गया... वह पा गया प्रिया को... । विदेह और उन्मुक्त दसों दिशाओं में फैली है उसी के वात्सल्य की अपार माया ! --- पहली ही बार समा सका है इन चर्म चक्षुओं में प्रिया का वह सांगोपांग और अविकल दर्शन ! I वह मचल पड़ा - वह दौड़ पड़ा। देह विस्मरण कर वह पर्वत के श्रृंग से धरती की गोद में आ पड़ा। टूटने को आकुल देह के बन्ध छटपटाने लगे। हाथ-पैर पसारकर सजल शाहल हरियाली से भरी पृथ्वी से वह लिपट गया। धरणी के वृक्ष से वक्ष दाबकर भूमिसात होने के लिए उसका रोयाँ रोयाँ आलोड़ित हो उठा। नहीं- अब वह अपने को नहीं रख सकेगा ।...इस मृण्मयी के कण-कण और अणु-अणु में यह अपने को बिखेर देगा। जन्म-जन्म की पराजित बासना, चिर दिन की विरह-वेदना एकाग्र होकर जाग उठी । अन्ध और निर्वन्ध होकर प्रकृति के विशाल वक्ष में वह अपने को अहर्निश मिटाने लगा, गलाने लगा। उसकी समूची चेतना एक निराकुल परिरम्भण के अशेष सुख से आविल है। बाहर से जितना ही वह अपने को मिटा रहा है, भीतर उसके अंग-अंग में एक नवीन रक्त का संचार हो रहा है। एक नवीन जीवन के संसरण से उसकी शिरा-शिरा आप्लावित हो उठी है। अपूर्व रस की माधुरी से उसका सारा प्राण ऊर्मिल और चंचल है। उसकी मुँदी आँखें नव-नवीन परिणमन और एक सर्वथा नवीन सृष्टि के सपनों से भर उठी हैं। मन के सूक्ष्मतम आवरण-विकारों की झिल्लियाँ तोड़कर, प्रकृति और अनादि जीवन के स्रोत फूट चले हैं। 232 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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