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________________ अपना कहने को कुछ भी नहीं है उसके पास । सारी कांक्षाएँ-कामनाएँ, कल्पनाएं, संकल्प-विकल्प-सब निःशेष हो गया है। मुक्ति और बन्धन का विकल्प ही जब __ मन में नहीं रहा है, तो मुक्ति-रमणो के वर का क्या प्रश्न हो सकता है...? निपट अज्ञानी और भाव-शून्य होकर वह वन-वन फरीदं रहा है।-वृक्ष-वृक्ष, डाल-डाल और पत्ती-पत्ती से बह प्रिया की बात पूछता फिरता है। पृथ्वी के विवरों में मुँह डालकर घण्टों अपनी श्वास से उसकी गन्ध को पीता रहता है। जड़-जंगम, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, दीपक सनके अन्तरतम में झाँक रहा है। अनायास ही सबके अपनत्व का लाभ वह पा गया है। बाहर से वह जितना ही विरही, विसंग और एकाकी है, भीतर उत्तना ही सर्वगत और सर्वसंगत होता जा रहा है। जिस विशलता से वह कली और किललय को चूमता है, उसी ललक से वह तीखे काँटों और नुकीले __ भाटों को भी चूम लेता है। होने से रक्त झर रहा है, आँखों से आंसू बह रहे हैं। अंग-अंग के क्षतों से फूट रहे रक्त में प्रिया के अरुण होठों के चुम्बन सिहर उठते हैं। सुगम और दुर्गम की कोई सतर्कता मन में नहीं है। सारी अगमताओं और अबरुद्धताओं में वह अनायास पार हो रहा है। वह तो मात्र एक सतत गतिमान प्राण-भर रह गया है। पहाड़ की ये तपती चट्टानें जितना ही कठिन अवरोध दे रही हैं, उतना ही अधिक तरल होकर वह उनके भीतर भिद जाना चाहता है। वह दिन-दिनभर उन तप्त पाषाणों से लिपटा पड़ा रहता है कि इनमें अपने को पिघलाकर इस समूचे भूधर के सारे, जड़-जंगम में जीवन-रस बनकर वह फैल जाएगा। इन पार्वतोय नदियों के तटों में वह अपने को गला देना चाहता है, कि इनके प्रवाह में मिलकर मानवीय पृथ्वी के जाने किन दूर-दूरान्त छोरों में वह चला जाएगा-तटवर्ती प्रदेशों के जाने कितने गिरि-वन, पशु-पक्षी और लोकालयों को यह जीवन-दान करेगा, उसके सुख-दुखों, प्यास-तृष्णाओं का परस पाकर, अपनी चिर दिन की विरह-वेदना को शान्त करेगा! कभी किंचित् संज्ञा जाग उठती है तो नाना आवेदनों और निवेदनों में वह प्रिया को पुकार उठता है-- ...रानी-मेरे अपराध का अन्त नहीं है। पर अपने को मैंने कब रखा है। उसी रात तुम्हारी शरण में मैंने अपने को हार दिया था। तुम्हारा भेजा ही युद्ध पर गया था। तुमने कहा था कि धर्म की पुकार आयी है-जाना ही होगा। पर वहाँ देर हो गयी क्यों हो गयी सो तुम्हीं जानो। अब और न तरसाओ-अय और परीक्षा न लो। तुम्हारे बिना ये प्राण न मरते हैं, न जी पाते हैं। बहुत ही दोन, अकिंचन और दयनीय हो गया हूँ। क्या अब भी तुम्हें तरस नहीं आएगा-? पर आह, तुम्हारी अथाह कोमलता का परस जो पा चुका हूँ-कैसे विश्वास कर सकता हूँ कि तुम इतनी निर्दय हो सकती हो। अपने ही क्षद्र स्वार्थी हृदय से तम्हें लील रहा हूँ, मेरी हीनता का तो अन्त ही नहीं है। तेरे दुखों की कल्पना भी नहीं कर पाता हूँ। उनमें झाँकने मुक्तिदूत :: 231
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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