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________________ वसन्तमाला ने बड़े दुलार से अंजना का एक हाथ खींचते हुए कहा- "ओ हो अंजन, नाम आते ही ग़ायब हो रही है। पा जाओगी तब तो शायद दुर्लभ हो जाएगी। पर कितना सुन्दर नाम है- पवनंजय कुमार पवनंजय ! उस दिन मानसरोवर की उन उत्ताल तरंगों पर सन्तरण करता वह कुमार सचमुच पवनंजय था। निर्भय हँसता हुआ जैसे वह मौत से खेल रहा था। उन सुदृद, सुडौल भुजाओं के लिए वह लीला मात्र थी । और वे हवा में उड़ती हुई आलुलायित अलकें। बड़े भाग्य हैं तेरे अंजन - जो पवनंजय ता कुमार पा गयी है तू 1 " अंजना चित्र-लिखी-सी, बिलकुल अवश, मुग्ध बैठी रह गयी । वसन्तमाला की बात सुन वह भीतर-ही-भीतर नम्र विनम्र हुई जा रही है। आँख के पलक निस्पन्द हैं। पुलकों में मानो शरीर सजल होकर यह चला है। एक हाथ उसका शिथिल, वसन्तमाला के हाथ में है । वसन्तमाला उसकी सबसे प्रियतम सखी है - कहें कि उसकी आत्मा की सहचरी है। बात करते-करते सुख के आवेग से वसन्त भी जैसे भर आयी, सो विनोद करना भूल गयी । तभी एक दूसरी सखी मिश्रकेशी इंयां से मन-ही-मन जल उठी और होठ काटकर चोटी हिलाती हुई बोली "हेमपुर के युवराज विद्युत्प्रभ के सामने पवनंजय क्या चीज है। भरतक्षेत्र के क्षत्रिय कुमारों में विद्युत्प्रभ अद्वितीय है। रूप, तेज-पराक्रम, 1 श्री- शौर्य में दूसरा कौन उनके समकक्ष ठहर सकता है? और फिर हेमपुर के महाराज कनकधुति का विशाल वैभव, परिकर आदित्यपुर का राजवैभव उसके सम्मुख तिनके बराबर भी नहीं है। यह जानकर कि विद्युतप्रभ के संन्यस्त होने का नियोग है, अंजना का विवाह महाराज ने उनके साथ न किया, यह अविचार हैं। क्षुद्र पवनंजय का आजीवन संग भी व्यर्थ है; और विद्युत्प्रभ जैसे पुरुषपुंगव का क्षणभर का संग सम्पूर्ण जीवन की सार्थकता है... | " अंजना अब भी इतनी विभोर थी कि जैसे इन कटु-कठोर वचनों को उसने सुना ही नहीं। उसकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्राण की उसी एक ऊर्जस्वल धारा में लीन हो गयी थीं। विरक्ति की ग्लानि के बजाय अब भी उसके दीप्त मुख-मण्डल पर वही अमन्द आनन्द की मुसकराहट थी। समर्पण की दीपशिखा -सी वह अपने आप में ही प्रज्वलित और तल्लीन थी - बाहर के थपेड़ों से अप्रभावित । उसका अंग-अंग सौरभ भार नम्र पुण्डरीक-ला झुक आया था। मिश्रकेशी के उस कटु भाषण से सभी सखियाँ इतनी विरक्त और क्षुब्ध हो गयी थीं कि किसी ने भी उस विषय को बिखेरना उचित नहीं समझा। तभी एकाएक अंजना को जैसे चेत आया । अनायास वह चंचल हो पड़ी और वसन्तमाला के गले में दोनों हाथ डालकर उसकी गोद में झूलती हुई बोली - " वसन्त- मेरी पगली वसन्त ! " और फिर वह उठ बैठी और सब सखियों की ओर उन्मुख होकर बोली मुक्तिदूत : 31
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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