SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का राजसिंहासन यदि रावण की रक्षा का भिखारी बनकर कायम हैं, तो उसका मिट जाना ही अच्छा है। हो सका तो उसे अपने बल पर ही रखूगा, और नहीं तो रावण ही उसे रख लें, मुझे आपत्ति नहीं होगी !" प्रहस्त ने पाया कि यह केवल मास्तष्क का तर्क नहीं है, अन्तर का निवेदन है, जो सहज आत्म-ज्ञान से प्रयुद्ध है। उसके आगे कोई प्रतिवाद मानो नहीं ठहरता। प्रहस्त का मन अश्रुभार से नम्र होकर झुक आया। पर वह कशेर होने को बाध्य है। उसके सामने राज-कर्तव्य है। राज्य के कुछ निश्चित हितों की रक्षा का दायित्व उस पर है। पर इस पवनंजय की दाष्ट में राज्य तो शून्य है। यह कैसे बनगा-? सब कुछ समझते हुए भी बन्त्रवत् प्रहस्त ने आपत्ति उठायी ___ "चक रहे हो पवन, तम इस समय आदित्यपुर के सेनापति हो, आदित्यपुर के राजा नहीं। सिंहासन और राज्य को रखने म रखने का निर्णय राजा के अधीन है, तुम केवल राजाज्ञा के वाहक हो!" पवनंजय फिर खिलखिलाकर हैस आये। कुछ देर चुप रहे, फिर ज़रा सलज्ज भाव से सिर नीचा कर बोले__. “...पर तुमसे क्या छुपा है, प्रहस्त?-तुम सिंहासन और राज्य की कह रहे हो? पर स्वयं राजलक्ष्मी को जो पा गया हूँ! सिंहासन तो उसी के हृदय पर बिछा है न?यरल सत लक्ष्मी ने उस पर मेरा अभिषेक कर दिया है और तुम्हीं थे उसके पुरोहित! तब राजा कौन है और अधिकार किसका है, इस विवाद में महीं पइँमा। राजस्व व्यक्ति में नहीं है। धर्म का शासन जो वहन करे वही राजा है, वह किसी भी क्षण बदल सकता है। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि राज्य, सिंहासन, राजा, मैं-सब उसी के रखे रहेंगे। स्वयं लक्ष्मी की आज्ञा हुई है-मैं तो उसी का भेजा आया हूँ। आदेश का पालन भर करने चला हूँ। पथ की स्वामिनी वही है। तुम, मैं, राजा और यह विशाल सैन्य, सब उसी के इंगित पर संचालित हैं। इसके ऊपर होकर मेरा कुछ भी सोचना नहीं है। प्रहस्त अपनी हँसी न रोक सके। आँखें पुलक आयीं। उन्हें लगा कि पबनंजय नवजन्म पा गया है। इतने वर्षों का वह चट्टान-सा कठोर हो गया पवनंजय, सरल नयजात शिशु-सा होकर सामने बैठा है। जी में आता है कि दुलार से बाँह में भरकर इस मैंह को चूम लें, जो यह नयी बोली बोल रहा है। पर भावना इस क्षण चर्जित है, ठोस वास्तव की माँग इस समय सामने है। हँसते हुए ही प्रहस्त बोले "लक्ष्मी की आज्ञा तो सारे छात्रों के ऊपर है, पवन, उसे टालने की सामर्थ्य किसकी है। वह तो शक्तिदात्री भगवती है, लोक की और अपनी रक्षा के लिए, वह हमें शक्ति और तेज का दान करती है। अपने वक्ष पर धर्म की जोत जलाकर वह हमारा पथ उजाल रही है! उस बारे में मतभेद को अवकाश कहाँ है?-पर व्यवहार की राजनीति में हमें पग-पग पर ठोस सचाई का सामना करना है ! वह जीवन का 190 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy