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________________ पवनंजय खिलखिलाकर हंस पड़े .. "हं...योजना? अचम्भा हो रहा है, प्रहस्त, और अपने ही ऊपर हंसी भी आ रही है। इतना बड़ा विशाल सैन्य लेकर आखिर किस पर युद्ध करने चढ़ा हूँ मैं-" ज़रा बात मुझे साफ-साफ़ समझा दा न, प्रहस्त।" प्रहस्त ने साफ़ और सीधी व्यवहार की बात पकड़ी, बोले "पाताल-द्वीप के महामण्डलेश्वर राजा रावण के माण्डलीक हैं आदित्यपुर के महाराज प्रहाद । जम्बू-द्वीप के अनेक विद्याधर और भूमि-गोचर राजा उन्हें अपना राज-राजेश्वर मानते हैं। वरुणद्वीप के राजा वरुण ने, रावण का आधिपत्य स्वीकार करने से इनकार किया है। वह कहता है कि-यदि रावण को अपने देवाधिष्ठित रत्नों का अभिमान है, तो मुझे अपने आत्म-स्वातन्त्र्य और अपने भुज-बल का। इस पर रावण ने अपने देयाधिष्ठित रत्न उतार फेंके हैं, और स्वयं अपना भुज-बल दिखाने राजा यरुण पर जा चढ़े हैं। युद्ध बहुत भीषण हो गया है, संहार की सीमा नहीं है।-रावण के हम माण्डलीक हैं, सो निश्चय ही हमें रावण के पक्ष पर लड़ना है, इसमें दुविधा कहाँ हो सकती है, परन?" पवनंबर नाइकर कुछ सोपते रहे किरदरा मुँह पलाकर गम्भीर स्वर में बोले ___ "रावण के माण्डलीक हैं आदित्यपुर के महाराज प्रसाद, मैं नहीं। और इस समय इस सैन्य का सेनापति मैं हूँ, महाराज प्रसाद नहीं! और शायद तुम्हें याद हो प्रहस्त, इसी मानसरोवर के तट पर, मैंने तुमसे कहा था कि आदित्यपुर का राजसिंहासन मेरे भाग्य का निर्णायक नहीं हो सकता। उस दिन चाहे वह क्षण का आवेग ही रहा हो, पर अनायास मेरे भीतर का सत्य ही उसमें बोला था। तब युद्ध में पक्ष चुनने का निर्णय मेरे हाथ है, आदित्यपुर के सिंहासन से वह वाध्य नहीं...!" कहते-कहते पवनंजय हँस आये। बोलते समय जो भी उनका स्वर गुरु-गम्भीर था, पर उनकी भौंहों में यह सदा का तनाव नहीं था। आवाज में उतावलापन और उत्तेजना नहीं थी। थी एक धीरता और निश्चलता। "आदित्यपुर का सिंहासन यदि इतना नगण्य है, तो तुम लड़ने किसके लिए जा रहे हो, पवन, यही नहीं समझ पाया हूँ?" "कर्तव्य के लिए लड़ने चला हूँ, प्रहस्त!-अगोचर से धर्म की पुकार सुनाई पड़ी है। पर किस व्यक्ति के विरुद्ध लड़ना है, यह सचमुच मुझे नहीं मालूम । मेरा युद्ध व्यक्ति के विरुद्ध कहीं नहीं है, यह अन्याय और अधर्म के विरुद्ध है। और मेरा युद्ध सिंहासन के लिए नहीं, अपनी और सर्व की आत्मरक्षा के लिए है। अपने ही को यदि नहीं रख सका, तो सिंहासन का क्या होगा? और जो सिंहासन अपने को रखने के लिए अन्याय के सम्मुख झुक जाए, वह मेरा नहीं हो सकता। आदित्यपुर मुक्तिदूत :: 19
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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