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________________ काली काली धारियों के जाल हैं। काल-सी क्रूर उसकी भृकुटि के नोचे अंगारों-सी लाल आंखें झग-झग कर रही हैं। विकराल डाहों में उसकी रोद्र जिमा लपलपा रही है। उसकी प्रलयकारी गजना से चारों ओर की वनभूमि आतंक से थर्रा उठी। पशु-पक्षी आतं क्रन्दन करते हुए, इधर से उधर झाड़ियों में दौड़ते दीखे । एक ओर लोमहषी हुंकार के साथ सिंह प्रवाह को लांघकर दीक गुहा के नीचे आ पहुँचा । सामने होइन मानचियों को देखकर वह और भी भीषणता में इकराने लगा। एक छलांग भर मारने की देर हैं कि अभी-अभी यह गुफा में जा पहुंगा, और इन दोनों भागवियों को लोल जाएगा। बसन्त अंजना को छाती में भर, भय से थरांती हुई गुफ़ा की दीवार में धंसी जा रही है। उसे अनुभव हुआ कि अंजना के गर्भ का बालक तेजी से घूम रहा है। मन-ही-मन वह हाय-हाय कर उठी है- "हे भगवान् ! यह क्या अकाण्ड घटने जा रहा है? क्या इन्हीं आँखों से यह सच देखना होगा?" अंजना ने समझ लिया कि मृत्यु का यह क्षण अनिवार्य है। दोनों की आँखों में लुप्त होती चेतना के हिलोरे आने लगे। मृत्यु की एक विचित्र-सी गन्ध उसकी नाक में भरने लगी। एकाएक अंजना बोल उठी ___"जीजी, मृत्यु सम्मुख है!-काया का मोह व्यर्थ है इस क्षण-आल्मा की रक्षा करो। आर्त-रौद्र परिणामों से मन को मुक्त कर इस मृत्यु के सम्मुख अपने को खुला छोड़ दो। रक्षा इन पाषाणों में नहीं है-अपने ही भीतर है! देर हो जाएगी, जीजी, कायोत्सर्ग करो... कहकर अंजना अपने स्थान पर ही प्रतिमा योग आसन लगाकर प्रायोपगमन समाधि में लीन हो गयी। दृष्टि नासाग्न भाग पर ठहराकर, श्वासोच्छ्वास का निरोध कर लिया। देह विसर्जित होकर, निश्चेष्ट, निर्जीव पिण्ड मात्र रह गया । अपने ध्यान में पर्वत-घाटी के प्रभु के चरणों में उसने अपने प्राणों को अर्पित कर दिया। वसन्त भी ठीक उसका अनुसरण करती हुई उसके पास ही आसीन थी। उस योग में दोनों बहनों के चेतन तदाकार हो गये। एकाएक उनकी ध्यानस्थ दृष्टि में झलका एक दीर्धाकार अष्टापद जिसकी सारी देह सोनहली है और उस पर सिन्दूरी और काले धब्बे हैं, गुफा की दूसरी ओर से हुंकारता हुआ कूद पड़ा। 'मैरव गर्जनों और डकारों के बीच दोनों में तुमुल संग्राम हुआ।-देखते-देखते सिंह भाग गया और अष्टापद कहीं दिखाई नहीं दिया...! रात गहरी हो जाने पर जब दोनों बहनों ने आँखें खोली तो वही रोज की निस्तब्ध शान्ति चारों ओर पसरी थी। झाइ हींस रहे थे और झरने का घोष अखण्ड चल रहा था। दोनों बहनों का बोल रुद्ध था, भीतर की उसी एक-प्राणता में वे तन्निष्ठ थीं। एक-दूसरे से लिपटकर वे सो गयीं। पर नींद उनकी आँखों में नहीं थी। अचानक रात्रि के मध्य प्रहर में पर्वत शिखर पर से वीणा की झंकार उठी, झरने के जल-घोष में अपने स्वराघात से आरोह-अवरोह जगाती हुई वह एक ध्रुव सम पर 16] :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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