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________________ उसके पाद-प्रान्त में एक हरिण चिह्नित था।...तीर्थकर शान्तिनाथ! अंजना तो देखते ही हर्ष से पागल हो उठी। मन में गान की तरह एक भाव उच्छ्वसित हुआ-जो अनायास उसके होठों से उत्स की तरह फूट पड़ा प...कौन सर्वहारा शिल्पी, किस दिव्य अतीत में आया था-इस मानवहीन अगम्य पार्वत्य भूमि में? किस दिन उसने महाकाल की धारा में अपनी टाँकी का आघात किया था?-पाषाण की इस वज-कठोरता में अपनी आत्मा की सारभूत कोमलता को वह आँक गया है। मानव की जगती से टकरायी हुई हृदय की सारी स्नेह-निधि वह एकान्त के इस पाषाण में उँडेल गया है। मल्लिका की शाखाओं में डोलती हुई हवाएँ इस पर निरन्तर फूलों के अर्घ्य चढ़ाती हैं, और शिखर पर से आती जल-धाराएँ इसका अभिषेक करती हैं। उस अज्ञात शिल्पी को शत-शत बार मेरे चन्दन हैं..." पास ही बह आये धातु-राग से अंजना ने अपने मन का वह गान नीचे की चट्टान पर लिख दिया। उस दिन के बाद से अनुक्षण यह गान अंजना के कण्ठ में [जता ही रहता । उसी क्षण से वह स्थल अंजना की आराधना-भूमि बन गया। सवेरे के स्नान के याद यहीं आकर दोनों बहनें पूजा-प्रार्थना में तल्लीन हो जाती। अंजना के कपल से रिला-नवीन गान पटना। यार की शाखा को धात्त-राग में डुबाकर अपना गीत वह किसी भी शिला पर अंकित कर देती। मूर्ति के पाद में अपना गान निवेदन करती हुई अंजना नत हो जाती और दूर-दूर की कन्दराओं में उसकी प्रतिगंज अनन्त होती चली जाती। दोनों बहनों की मुँदी आँखों से आँसू झरते और भीतर पूर्ति की स्मिति अधिकाधिक तरल होकर फैलती जाती । एकाएक वे होठ स्पन्दित होते दीख पड़ते और अंजना के अन्तर में याङ्मय की धाराएँ फूट निकलतीं। गहा में लौट, उपल के पात्र में सिन्दूर और स्वर्ण-राग लेकर, यह भोज-पत्रों के पन्ने के पन्ने रँग डालती। वह क्या लिखती थी, यह तो यह स्वयं भी नहीं जानती थी। देव की वाणी आप ही उन निर्जीव पन्नों में ढल रही थी। यों दिन सुख से बीतते जाते थे। समय का भाव मन पर से तिरोहित हो गया था। जीवन प्रकृति के आँचल में आत्मस्थ और एकतान होकर चल रहा था। पर रात के अन्धकार में विचित्र जन्तुओं की आँखें झाड़-झंखाड़ों में चमकती और दहकती दीखतीं । कभी-कभी वन्य-पशुओं की भीषण हुंकारें सुन पड़तीं। दोनों बहनें एक-दूसरे से लिपट जातीं। उच्च स्वर में अंजना अपने रचे स्तवनों का पाठ करती और यों भय की घड़ियाँ टल जातीं। वे अचेत होकर नींद के अंक में पड़ जाती। एक दिन की बात-ऊपर सन्ध्या का आकाश लाल हो रहा था। अपने फलाहार से निवृत्त होकर अंजना और वसन्त अभी-अभी गुफा के बाहर आकर खड़ी हुई थीं।-कि एकाएक दहाड़ता हुआ एक प्रचण्ड सिंह प्रवाह के उस पार आता हुआ दिखाई पड़ा। सोनहरी और विपुल उसकी अयाल है। उस प्रलम्ब पीली देह पर मुक्तिदूत :: 1789
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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