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________________ कहीं भी दूर की डाल पर कोई कबूतर दीख जाता तो अंजना नाम लेकर पुकार उठती। कबूतर उड़कर उसकी फैली हुई भुजा पर आ बैठता और उसके कण्ठ में चोंच गडा-गड़ाकर, रिझा करशा तु मुहर दर करने लगा। सिन्धुधार और यासन्ती वृक्षों के शिखरों में चित्र-विचित्र मैनाएँ आती, और सामने के शिंशपा और मधूक वृक्षों की हालौ पर तोतों का लमघट हो जाता। जाने कितनी जल्पनाओं और गानों में उनका वार्तालाप होता। सारो बनभूमि नाना ध्वनियों से मुखरित हो उठती। दोपहरी को अलस स्तब्धता भंग हो जाती । अंजना का मन अर्थ-हारा और निःशब्द होकर इस अखण्ड भाषा की एकत्ता के वोध में तल्लीन हो जाता। पर्वत के पाइ-मूलों में ऊपर से आती पानी की झरियों से सिंचकर फलों के नैसर्गिक बाग़ झुक आये हैं। फलों के भार से मम्र वहाँ की भूमिशायिनी डालों को देख अंजना को अपना चांचल्य और उच्छलता भूल जाती। उसके अंग-अंग उमड़ आते रस-सम्भार से शिथिल और आनत हो जाता। शिरा-शिरा में आत्मदान की विवश आकुलता घनी होती जाती। एक अनिवारित ज्वार के हिलोरों से स्तन उफना आते। वन-कदली का कंचुकि-बन्ध होकर अनजाने ही खिसक पड़ता। उवासियों भरती हुई अलस और विसुध होकर वह उस फल-विचुम्बित भूमि पर अपनी देह को बिछा देती । विपुल फलों के झुमकों से झुक आयी डालों को अपने स्तन और भुजाओं के बीच यह दाबन्दाब लेती, होठों और गालों से सटाकर उन्हें चूम-चूम लेती, पलक और लिलार से उन्हें रभत करती। उसे लगता कि पृथ्वी अपने सम्पूर्ण आकर्षण से उसे अपने भीतर खोंच रही है, और उतने ही अधिक गम्भीर संवेग से दान का अनवरत स्रोत उसके वक्ष में से फूट पड़ने को विकल हो उठता। एकबारगी ही फलों का समूचा बाग इस रस-सन्धान से सिहर उठता। ऊपर की शाखाओं में अलस भाव से फलाहार कर रहे वानरों को सभा भंग हो जाती। शाखा-प्रशाखा में कूदते-फौंदते वै तल में आ पहुँचते । शुरू में तो कुछ दिन वे अंजना से इरकर दूर भाग जाते, पर वे उसे चारों ओर से घेरकर बैठ जाते हैं। अंजना के उस गोरे और सुकोमल शरीर को अपने तीखे नखोयाले काले पंजों से दुलराने का मुक्त अधिकार वे सहज पा गये थे। पायताने बैठ कुछ वानर उनके पैर दबाने लगते । उनमें से कुछ सिरहाने बैठकर उसके दीर्य और उलझे केशों को अपनी उँगलियों से सुलझाने लगते। कुछ ऊपर को डाल से तोड़कर, एकाध फल उसके होठों से लगाकर उसे खिलाने की मनुहार करते, उसके वे हठीले सहचर तब तक नहीं मानते, जब तक उनके हाथ से वह दो चार फल खा न लेती। हँस-हँसकर अंजना के पेट में बल पड़ जाते-और सारी देह उसकी लाल हो जाती। जाने कैसे प्रणय और वात्सल्य की मिश्र लज्जा और विवशता से उसका रोयाँ-रोयाँ उभर आला । आँखें मूंदकर उनके तीखे नखवाले पंजों को अपने उद्भिन्न स्तनों से अनजाने ही दाब लेती। भीतर की घुण्डियों से बिखर कर रक्त जैसे किसी अनायास क्षत में से बह आने को उच्छल हो उठता। मुक्तिकृत :: 175
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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